Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 65
________________ तरंगवती ५३ वह दासी मुझे तुरंत रत्नकांचन जडित फर्शवाली ऊपर की मंजिल पर ले गई । वह राजमार्ग के लोचन जैसा लग रहा था। उसके बीच के रत्नमय गवाक्ष में सुखासन पर बैठे सार्थवाहपुत्र को दिखाकर वह दासी तत्क्षण चली गई। भी हृदय में घबराती तथापि उस चक्रवाक - प्रकरण के सहारे विश्वस्त होकर उसके पास पहुँच गई। पद्मदेव के दर्शन एक मूर्ख ब्राह्मणबटुक उसके पास बैठा था । सार्थवाहपुत्र की गोद में चित्रफलक था । वह धनुष्यरहित कामदेव जैसा एवं अत्यंत सुंदर लावण्ययुक्त प्रतीत होता था । नयनों से झरते आँसू चित्रफलक की आकृति बिगाड देते थे । वह नौसिखिये चित्रकार की भाँति बार-बार आकृति बनाता और पोंछ डालता था । तुमसे समागम प्राप्त करने के मनोरथपूर्ण हृदय लेकर, हास्यविनोद से अछूता, वह · अपनी देहदशा पर शोक कर रहा था । ऐसे समय विनय से गात्र नवाकर, मस्तक पर अपने हाथ जोडकर उसके पास जाकर मैंने 'आर्यपुत्र चिरंजीव हो ।' तब अरहर जैसे लाल वस्त्रों में सज्ज, वक्र दंडकाष्ठधारक, कर्कशवक्ता एवं तुच्छोदर, उद्धतवदन, गर्विष्ठ, अतिशय मूर्ख, मर्कट-सा अनाडी, अशिष्ट चेष्टा - चोचले कर रहा । गोविष्ठा जैसा निंद्य, लौकी के बीज जैसे बाहर निकले दांतवाला कुंडी जैसे चौडे कानवाला था, केवल देह से वह ब्राह्मण । ऐसा वह अधमाधम बटुक बोला, 'आप प्रथम इस सुन्दर बटुक की वंदना क्यों नहीं करतीं और इस शुद्र की वंदना करती हैं ?' अतः दाहिना हाथ नवाकर मैंने दाक्षिण्य प्रकट किया और उस बटुक से मैंने कहा, 'आर्य, अहियं अह्निवाए ते (मैं तुम्हें अधिक वंदना करती हूँ" - अर्थांतर यह कि "तुम्हारे पाँव के निकट साँप हैं साँप ") ।' सुनकर वह एकदम मेढक की भाँति छलाँग मारकर कूद पड़ा और पूछने लगा, 'कहाँ है साँप ? कहाँ है साँप ? अरे हमको अब्रह्मण्य ! साँप से घिन होने के कारण मैं उस अमंलकारी को देखना भी नहीं चाहता । कहो, क्या तुम गारूडी हो ?' 1 मैंने उसे जवाब दिया । 'यहाँ कहीं भी नहीं हैं। तुम निश्चित हो जाओ ।' तब वह बोला, 'तो तुमने मुझे "अहियं अहिवाए" क्यों कहा ? मैं उत्तम

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