Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 63
________________ तरंगवती ५१ किया गया था फिर भी वास्तव में स्पष्ट रूप से उसकी विडंबना की गई होने से वह सार्थवाह खिन्न चित्त होकर लौट गया । यह सब सुनकर मैं हिमपात से मुरझाई नलिनी-जैसी हो गई, मेरा सुहाग नष्ट हुआ, हृदय शोकाग्नि से जल उठा और उसी क्षण मेरी सारी कान्ति लुप्त हो गई। शोकावेग जरा मंद होने पर अश्रु टपकती आँखों के साथ, हे स्वामिनी मैंने चेटी से रोते-रोते कहा : "यदि कामदेव के बाणों से आक्रांत वह मेरा प्रियतम प्राणत्याग करेगा तो मैं भी जीवित न रहूँगी, वह जीवित रहेगा तो ही मैं जीवित रहूँगी। पशुयोनि में जब थी तब भी मैंने उसके पीछे मौत को गले लगाना पसंद किया था तो अब उस गुणवान के बिना क्यों जीती रहूँ ? तो सारसिका, तुम मेरे उस नाथ के पास पत्र लेकर जाओ और मेरे उपरोक्त वचन भी उसे कहना ।" यह कहकर मैंने प्रस्वेद से भीगती हुई उँगलियोंवाले हाथ से प्रेम से प्रेरित एवं प्रचुर चाटु वचनयुक्त पत्र भूर्जपत्र पर लिखा । स्नान के दरम्यान अंगमर्दन करने की मिट्टी से उसे मुद्रित एवं तिलकलांछित करके वह लेख, थोडे शब्द एवं अत्यंत अर्थगर्भित मैंने दासी के हाथ में दिया और कहा : सारसिका, तुम प्रेम के अनुरोधपूर्ण और हृदय के आलंबन रूप मेरे ये वचन प्रियतम से कहना : "गंगा के जल में जो तेरे साथ क्रीडा करती थी, वह तुम्हारे पूर्वजन्म की भार्या चक्रवाकी श्रेष्ठी की पुत्री के रूप में जन्मी हूँ । तुमको खोजने के हेतु स्वयं ही वह चित्रपट्ट तैयार कर प्रदर्शित किया था । हे स्वामी, तुम्हारा पता चला इससे सचमुच मेरी कामना फली । हे परलोक के प्रवासी, मेरे हृदयभवन में बसे यशस्वी, तुम्हारे पीछे मृत्यु का वरण करके तुम्हें खोजती मैं भी यहाँ आई । चक्रवाक भव में जैसा प्रेमसंबंध था, वैसा अब भी यदि तुम धरे हुए हो तो हे वीर ! मेरे जीवन के खातिर मुझे तुम हस्तावलंबन दो । पक्षीभव में हम दोनों में परस्पर सैकडों सुखों की खान जैसा स्वभावगत अनुराग जो था, जो रमणक्रीड़ा थी वह तुम याद करना ।" मेरे सारे सुखों के मूल समान प्रियतम के पास जाने को उद्यत सारसिका से मैंने व्यथित हृदय से यह एवं इसी प्रकार के अन्य वचन कहे । और यह भी कहा :

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