Book Title: Tarangvati Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 79
________________ तरंगवती उसने कहा, 'भीरु प्रिये, चिरकाल से बिछुडे हुए हमको इष्ट सुख देनेवाला समागम किसी प्रकार पुण्य के प्रभाव से प्राप्त हुआ है। हे सुंदरी, तुम समागम हेतु चित्रपट्ट यदि तैयार न करती तो हम अपनेपरिवर्तित रूप के कारण एकदूसरे को कभी पहचान न पाते । हे कान्ता, तुमने चित्रपट्ट प्रदर्शित करके मुझ पर जो अनुग्रह किया इससे यह पुनर्जीवन जैसा प्रेमसमागम प्राप्त हुआ।' इस प्रकार के श्रवण एवं मन को शांतिदायक अनेक मधुर वचन प्रियतम ने मुझसे कहे परंतु मैं प्रत्युत्तर में कुछ भी न बोल सकी । चिरकाल के परिचित प्रसंगों के कारण उसको मैंने जीत लिया था फिर भी मैं अतिशय लज्जावश अपना मुख उससे फेरकर नीची दृष्टि करके कटाक्षपूर्वक उसे देख रही थी। वाणी मेरे कंठ में ही भटक जाती थी। रतिसुख की उत्सुकता के कारण मेरे हृदय की धुकधुकी बढ गई थी। मेरे मनोरथ पूर्ण होने का यह आरंभ हो रहा था इसके कारण कामदेवने मुझे उत्तेजित कर डाली थी। तरंगवती की आशंका देहाकृति से प्रसन्न एवं पुलकित अंगोंवाली बनी हुई मैं नाव का तल पाँव से कुरेदने लगी और प्रियतम से कहने लगी, 'हे नाथ, इस समय मैं जैसे किसी देवता को कर रही हूँ वैसे तुमको निवेदन कर रही हूँ। मैं अब तुम्हारे सुख-दुःख की सहभागिनी भार्या हूँ। तुम्हारे कारण मैंने पीहर त्याग दिया । मेरा त्याग तुम तो न करना । तुम्हीं मेरे भर्तार और बांधव दोनों हो इसलिए मेरा त्याग न करना। हे प्रिय, मैं तुम पर प्रेमरक्त हूँ। इसलिए मुझे केवल तुम्हारे वचन सुनने को मिलेंगे तो भी निराहार रहकर दीर्घ काल तक मैं अपनी देह टिका सकूँगी। परन्तु तुम्हारे बिना हृदय को सुखकर ऐसी तुम्हारी वाणी से वंचित बनने पर एक क्षण भी धैर्य धारण नहीं कर सकूँगी।' हे गृहस्वामिनी, इस प्रकार भावी सुख पर मन से विचार किया । मैंने उसे इसलिए यह कहा कि मनुष्य का मन चंचल हैं ऐसी आशंका मेरे चित्त में प्रगट हुई थी। आशंका का निवारण तब वह बोला, "प्रिये, तुम अपने पियर के लिए तनिक भी चिंता वPage Navigation
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