Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 91
________________ तरंगवती में प्राप्त होते है, उसमें अन्य कोई तो केवल निमित्त बनता है। इसलिए हे सुन्दरी, तुम विषाद न करो । इस जीवलोक में सुख-दुःख की प्राप्ति करानेवाले विधि के विधान का किसी से भी उल्लंघन नहीं हो सकता।' हे गृहस्वामिनी, इस प्रकार मैं उस बुरी परिस्थिति में प्रियतम के समझदारी के वचनों का मर्म ग्रहण करके आश्वस्त हुई तब मेरा शोक सहनीय हुआ। सहृदय बंदिनियों को संकटकथा सुनाना मेरा रुदन सुनकर एकत्र हुई बंदिनियाँ मुझे पति के साथ बंधनग्रस्त एवं भोली हिरनी-सी मेरी दशा देखकर अत्यंत उद्विग्न हुई । मेरे करुण विलाप ने उनकी आँखों में आँसू उमडा दिये । उन्हें अपनेअपने स्वजनों का स्मरण हो आया और इसलिए लम्बे समय तक रोती रहीं। ' उनमें जो स्वभावगत वात्सल्यमय सुकुमार हृदया थीं वे हम पर टूटे संकटविपदा को देख अनुकंपा से भरकर काँपती हुई हिचकियाँ ले ले रोने लगीं । नेत्रों में आँसू भरकर वे पूछने लगी, 'तुम कहाँ, किस प्रकार इन अनर्थकारी चोरों के हाथ में पड़े ? ____ हे गृहस्वामिनी, तब मैंने हमारे चक्रवाक भव के सुखोपभोग, हाथी का स्नान, व्याध द्वारा चक्रवाक वध और वहीं मुझसे अनुमरण का स्वीकार, मनुष्यभव प्राप्त कर वत्सनगरी में कहाँ मेरा जन्म हुआ, कैसे चित्र द्वारा हम परस्पर पहेचान गये, मेरी मँगनी और उसका इन्कार कैसे हुआ, मैंने अपनी चेटी को कैसे उसके घर भेजा, नौका में हम कैसे भाग निकले और भागीरथीतट पर चोरों ने हमको कैसे पकडा - यह सारा वृत्तांत रोते-रोते मैंने बंदिनियों को सुनाया। अनुकंपा से प्रेरित चोर का छुडाने का वचन मेरी यह कहानी सुनकर वह चोर बरामदे से बाहर आया और अनुकंपा से द्रवित वह मेरा प्रियतम के बंधन ठीक तरह सांस ले सके उतने ढीले करने लगा। ___ इसके पश्चात् उसने उन बंदिनियों को दुत्कास्कर फटकारा । इससे मेघगर्जना से भयभीत हरिणियों की भाँति वहाँ से वे पलायन कर गईं। उनके जाने के बाद चोर ने धीमे स्वर में मेरे प्रियतम से कहा, 'तुम डरो

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