Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 89
________________ ७७ तरंगवती उसने भूना माँस खाया एवं सुरापान किया। मृत्यु के भय से त्रस्त, अत्यंत भयभीत हुई मैं प्रियतम से कहने लगी, 'आह कान्त ! इस भयंकर पल्ली में हमें मरना पड़ेगा ।' .. द्रव्य लेकर बंधनमुक्त करने का निष्फल प्रस्ताव : तरंगवती का विलाप मैंने उस चोर से कहा, 'कौशाम्बी नगरी के सार्थवाह का यह इकलौता पुत्र है और मैं वहाँ के श्रेष्ठी की पुत्री हूँ। तुमको जितने मणि, मुक्ता, स्वर्ण या प्रवाल की इच्छा हो उतने हम तुम्हें यहाँ रहे रहे दिलवा देंगे। तुम्हारे किसी आदमी को हमारा लिखा पत्र लेकर हम दोनों के घर भेजो और तुम्हें द्रव्य मिल जाने के बाद इसके बाद हम दोनों को छोड दो।' . उत्तर में उस चोर ने कहा, 'हमारे सेनापति ने तुम दोनों को कात्यायनी के यज्ञ के लिए बलिपशु निश्चित किये हैं। उसे देने को कह यदि हम न दें तो वह भगवती हम पर रूठेगी, उसकी कृपा से तो हमारी सब कामनाएं पूरी होती हैं। कात्यायनी की कृपा से हमारे काम में सिद्धि, युद्ध में विजय और सब प्रकार से सुख-चैन पायेंगे, इसलिए हम तुम्हें छोडेंगे नहीं।'' यह सुनकर एवं प्रियतम के गरदन एवं हाथ पीठ की ओर मोडकर बंधे और शरीर को मरोडा देख मैं अधिक जोर से रुदन करने लगी। हे गृहस्वामिनी, प्रियतम के गुण एवं प्रेमानुराग स्वरूप बेडी से बंधी मैं वहाँ अति करुण क्रंदन से विवर्ण होकर खेद से भर गई। हमें देखनेवालों के चित्त व्यथित एवं उतप्त कर दे ऐसा कराहकर मैं रुदन करने लगी। इससे बंदिनियों के भी आँसू उमड आये । मेरे कपोल, अधरोष्ठ एवं स्तनपृष्ठ भीग गए । मैं प्रियतम को छोड देने के लिए रो-रोकर लगातार बिनती करने लगी। हे गृहस्वामिनी, मैं कूटती-पीटती, बाल नोचती उबडखाबड जमीन पर लोटने लगी। 'जैसे सपने में देख सकी हो वैसे तुमसा गुणाढ्य मुझे प्राप्त हुआ। इसके फलस्वररूप मुझ पर यह परंतु भाग्य में रुदन आ पड़ा ।'हे गृहिणी, प्रियतम से होनेवाले बिछोह के दुःसह शोक-संताप के ऐसे करुण वचनों से मैं विलाप करने लगी।

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