Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 82
________________ ७० तरंगवती युद्ध में परास्त करना आसान है। हे विलासिनी, सत्य परिस्थिति से अनजान ये चोर केवल तब तक मेरे सामने खडे हैं, जब तक उन्होंने खडग उद्धृत मेरी कराल भुजा को देखा नहीं है। इनमेंसे किसी एक को मारकर उसका हथियार ले लूँगा और जैसे पवन बादलों को बिखेर देता है वैसे मैं इन सबको भगा दूंगा। पौरुष दिखाते वक्त मुझ पर विपत्ति आये तो भले ही आये, किन्तु हे कृशोदरी, रुदन करती तुमको वे उठा ले जाते मैं कदापि नहीं देख सकता । हे सुन्दरी, निष्ठुर एवं बलवान चोरों से लुट जाने पर वस्त्राभूषण विहीन, विपण्ण शोकग्रस्त और भग्नहृदया तुमको मैं किसी भी प्रकार नहीं देख सकता । तुमने पूर्वभव में मेरे लिए मृत्यु का वरण किया और इस भव में पीहर एवं सुखसमृद्धि त्यागे- ऐसी तुम पर चोरों द्वारा बलात्कार होता मेरे जीवित होते हुए रोकूँ नहीं यह कैसे हो सकता है ? तो हे बाला, मैं चोरों का सामना करने लगता हूँ यह तुम देखो । इन चोरों के साथ लडकर या तो हमारा छुटकारा या तो मरण होगा। सामना न करने को तरंगवती की प्रार्थना प्रियतम के ये वचन सुनकर मैं 'हे नाथ, 'तुम मुझे अनाथ न छोड जाना' यह कहती उसके पैरों में गिरी । 'यदि यही निश्चय तुम्हारा है तो मैं जबतक आत्महत्या करूँ तब तक तुम रुक जाओ । चोरों के हाथों तुम्हारा वध होता मैं किसी प्रकार देख सकूँगी नहीं । . यदि मेरी देह नष्ट हो जायेगी तो इससे मुझे बहुत लाभ होगा, किन्तु यदि चोरलोग तुम्हारी हत्या करेंगे तो फिर जीती रहने में मुझे कुछ भी लाभ नहीं । आह के बाद मुग्धपुरुष, दीर्घकाल प्राप्त, भागीरथी का पथिक, अल्पकाल के मिलन के अंत में, हे नाथ, जैसे स्वप्न में देखा और अदृश्य हुआ वैसे तुम अब अलभ्य हो जाओगे। परलोक में हमारा फिर से समागम कदाचित् हो या न हो किन्तु जबतक मैं जीवित हूँ तब तक तुम मेरा रक्षण अवश्य ही करना । एकदूसरे को न छोडने पर हमारा जो होना होगा वह भले हो; भाग जानेवाला भी कर्मविपाक के प्रहारों से बच नहीं पाता।

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