Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 64
________________ ५२ तरंगवती "सखी ! उसके साथ सुरतसुख का उदय करनेवाला मेरा समागम तुम साम, दाम एवं भेद से भी कराना । मुझसे अभिव्यक्त एवं अनभिव्यक्त, संदेशा के रूप में दत्त एवं अदत्त, जो कुछ मेरे लिए हितकर हो वह सब तुम उसे कहना।" ___तत्पश्चात् हे गृहस्वामिनी, वह चेटी मेरे हृदय को लेकर मेरे प्रियतम के पास जाने के लिए रवाना हुई। चेटी का पद्मदेव के आवास जाना उसके रवाना होने के बाद मुझे चिंता होने लगी। अल्प समय में सारसिका लौट आई । उसने मुझसे कहा, 'स्वामिनी, तुमने मुझे बिदा करने के बाद मैं राजमार्ग पर पहुँची । वह मार्ग सुंदर गृहों से सुशोभित वत्सदेशकी इस नगरी की माँग जैसा सुंदर लगता था । अनेक चौराहे, चौपाल, शृंगाटक पार करने के बाद मैं एक वैभवमंडित कुबेरभवन जैसे आवास के पास पहुँची ।। हृदय में भय के साथ मैं बाहर के कमरे के द्वार के पास जाकर बैठी। अनेक दास-दासियाँ विविध प्रवृत्तियों में व्यस्त थे । वे यह समझे कि मैं यहाँ नियुक्त कोई नई दासी हूँ। अतः मुझसे पूछा, 'कहाँ से आई ?' सत्य बात छिपाने की कला स्त्रियाँ हमेशा सहज ही सीख लेती हैं। मुझे जो बेतुका बहाना उस क्षण मन में आया वह मैंने कहा : "तुम आर्यपुत्र से मिल आओ" ऐसा आदेश देकर आर्यपुत्र के दास ने मुझे यहाँ भेजी है। मैं नई ही है यह तुम ठीक जान गये ।" अतः द्वार पर निर्गम एवं प्रवेश की निगरानी रखनेवाले सिद्धरथ द्वारपाल ने कहा, सैकडों लोगों में से कोई भी मेरी जानकारी से बाहर नहीं होता।' उसकी सराहना करते हुए मैंने कहा, 'सार्थवाह का घर भाग्यशाली है कि उसका द्वार तुम्हारे जैसे संभालते हैं । आर्य, तुम मुझ पर इतनी तो कृपा करना कि सार्थवाह का जो पुत्र है उस आर्यपुत्र के मुझे दर्शन हो जाय ।' तब उसने कहा, 'मैं इस द्वार की निगरानी का काम जिसे सौंप सकूँ ऐसा कोई प्रतिहार थोडी देर के लिए यदि मुझे मिल जाता है तो मैं स्वयं तुम्हें सार्थपुत्र के दर्शन करवा दूं।' उसने एक दासी को अपना काम सौंपा और कहा, 'इसे ऊपर की मंजिल पर आर्यपुत्र के पास जल्दी ले जा ।'

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