Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 69
________________ तरंगवती ५७ लिया है। इसलिए मैं सचमुच ही तुम्हारे चरणों का दास बनकर तुम्हारे संग बसूंगा। तुम्हारा चित्रपट्ट देख मुझे पूर्वजन्म के वृत्तांत का स्मरण हुआ है। मेरे पुण्य कम पड़े, जिससे मुझे तुम्हारी प्राप्ति नहीं हुई । इससे मेरा चित्त विषादपूर्ण हो गया है। तुम्हारी बात सुनते-सुनते निरंतर स्नेहवृत्तिमय मैं प्रीति के रोमांच से कदम्ब-पुष्प की भाँति कंटकित हो उठा ।" चेटी का प्रत्यागमन इस प्रकार तुम्हारे साथ के सुरत के मनोरथ की बातों में मुझे लम्बे समय तक रोक रखने के बाद कामबाण से जर्जरित देहवाले पद्मदेव ने अनिच्छा से मुझको बिदा किया। . बिदा होकर मैं उस अनुपम प्रासाद से निकली तब मुझे लगा कि मैं स्वर्ग से ढकेल दी गई हूँ। जिस मार्ग से गई थी उसी मार्ग से मैं लौट आई। उसके भवन की समृद्धि, वैभव,-विलास एवं विस्तार-विशालता के समान एक श्रेष्ठी के भवन को छोड कदाचित् अन्य किसीके नहीं होंगे । मैं अब भी उसके भवन की समद्धि, विलास, परिजनों की विशेषता, एवं उसका अनन्य रूप मानो प्रत्यक्ष देख रही हूँ। और हे स्वामिनी, उसने तुम्हारे लिए यह प्रत्युत्तर पत्र दिया है, जो समस्त गुणयुक्त एवं प्रेमगुण का प्रवर्तक हँसीखुशी के पात्र समान है। .. हे गृहस्वामिनी, मेरे प्रियतम के साक्षात् दर्शन-तुल्य वह मुद्रांकित पत्र मैंने उससे लिया और निःश्वास के साथ मैं उसके गले लग गई । चेटी से सनने को मिले वचनों से मैं उत्फल्ल चंपकलता की तरह हास्यपुलकित हुई और पत्रगत अर्थ जानने के लिए आतुरता से उस पत्र की मुद्रा तोडी । त्वरा से मैंने प्रियतम के वचनों की खान समान उस पत्र को खोला । उसमें वही का वही प्रकरण था, केवल मेरी मृत्यु की बात उसमें नहीं थी। जो कुछ मैंने अनुभव किया था और उसने जो कुछ किया था वैसा ही लेखन के रूप में अक्षरबद्ध किया हुआ था। उसकी मृत्यु प्रथम हुई और मेरा अनुमरण उसने न जाना यह भी उचित था । भूर्जपत्र पर लिखा गया, प्रियतम के पास से आया हआ वह लेख अपने भग्नहृदय से, मैं पढने लगी। जिस-जिस समय हमारी जो जो दशा थी सो प्रत्येक

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