Book Title: Tarangvati Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 74
________________ ६२ तरंगवती प्रियतम के दर्शन प्रियतम भवन के मुख्य द्वार पर आसपास मित्रों से घिरा आराम से बैठा था । दासीने मुझे एकांत स्थान में ठहराकर उसको बता दिया - सबके मन हरनेवाला, वह रात्रि के समय अनेक दीपमालाओं के बीच मानो ज्योत्स्ना प्रवाह बहानेवाला उदित शरच्चंद्र। उसे देखकर कज्जल से श्यामवर्णी मेरी आँखें आँसुओं से भर गईं । मेरे नेत्रों की तृषा उसे देखते छिपती न थी । दीर्घ काल के पश्चात् देख पाई इसलिए चक्रवाकयोनि से परिवर्तित इस रूप को उस पहले की कमी को पूरी करने के लिए वे निरंतर देखा करना चाहती थीं । परन्तु वे आँसुओं से छलछला गई थीं इसलिए दीर्घकाल देखती रहने पर भी निरंतर देख न सकी। प्रियतम को देखा इसलिए आनंद-हर्ष से पुलकित मैं वहाँ एक ओर खडी रही । सहमी हुई एवं लज्जित हम दोनों अंदर प्रवेश करने में डर रही थीं। इतने में हमारे सद्भाग्य से उसने अपने मित्रों को 'आप सब कौमुदीविहार देखिए, मैं तो अब शयन करूंगा' यह कहकर विदा किया। उनके जाने पर मैंने चेटी से कहा, 'आओ अब हम उस चक्रवाकश्रेष्ठ से मिलने के लिए श्रेष्ठी के घर में चलें।' . मैं जाकर भवन के आँगन के एक कोने में धडकते हृदय से खडी हो गई । दासी जाकर उससे मिली । मैंने देह पर वस्त्राभरण ठीक किये और उस देहधारी कामदेव से मिलने के लिए आतुर मैं प्रियतम को मन भर के देखने लगी। चेटी को विनय से हाथ जोड़कर वहाँ खडी देखकर अत्यंत आदरभाव से एवं हडबडाता हुआ प्रियतम त्वरा से खडा हो गया । जिस जगह मैं लज्जा से सहमी हुई गुप्त रूप से खडी थी उसी ओर उसने चेटी के साथ कदम बढाये। उसके नेत्र हर्षाश्रु से सजल हो गए, दूती की उँगली उसने पकड़ ली और संतोष की स्पष्ट झलक मुख पर आ गई । वह कहने लगा : 'मेरी जीवनसरिता के बाँध-सी, सुख की खान जैसी, मेरे हृदयगृह में बसी हुई, मेरी वह सहचरी तुम्हारी स्वामिनी कुशल तो है न ? मदनबाण के प्रहार से विद्धहृदय मुझे तो उसका समागम करने के मनोरथों के तनाव के कारण तनिक भी सुख नहीं ।Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140