Book Title: Tarangvati Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 19
________________ तरंगवती गृह-तंतु में भोगे सुख, पूर्व के कृत्य एवं क्रीड़ाएँ पाप सने होते हैं । अतः वे मन में लाने योग्य भी नहीं, फिर तो वाणी द्वारा कहने की बात ही कहाँ ? तथापि ऐसे वृत्तांत का कथन संसार के प्रति जुगुप्सा उत्पन्न कर सकती है । तो इस कारण से, मैं रागद्वेष से मुक्त रहकर तटस्थभाव से आत्मवृत्तांत कहूँगी । तो सुनिए आप मेरे कर्मविपाक का फल ।' इस प्रकार जब उसने कहा तब वह गृहिणी और रमणियाँ उल्लसित हो गई और श्रवणातुर होकर आर्या को सबने वंदन किया। श्रमणी उन सब स्त्रियों को अपने पूर्वभव के कर्मों के विपाकरूप समग्र कथा कहने लगी। ऋिद्धि एवं गौरवशून्य होकर, मात्र धर्म के प्रति दृष्टि रखकर मध्यस्थभाव से साक्षात् सरस्वती जैसी आर्या बोली : हे गृहिणी, जो कुछ मैंने अनुभव किया, सुना और मुझे याद है उसमें से थोडासा छाँटकर मैं संक्षेप में वह कह बताती हूँ, तो तुम सुनो । जहाँ तक अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहा जाता है - अर्थात् यथातथ बात कही जाती है उसमें वहाँतक निंदा या प्रशंसा का दोष नहीं आता । कथामुख वत्सदेश भारतवर्ष के मध्य खंड में वत्स नाम का रम्य और सर्वगुणसंपन्न जनपद है : जो रत्नों का उद्भवस्थान, बड़े बड़े विज्ञों का समागमस्थान, मर्यादाओं का आदिस्थान, धर्म, अर्थ एवं काम का उत्पत्तिक्षेत्र है। सुख-सा प्रार्थनीय, विबुधों के निर्णय-सा रमणीय, निर्वाण-सा बसने योग्य और धर्मपालन-सा फलप्रद । कौशाम्बीनगरी उसमें -एक कौशाम्बी नामक नगरी, जो उत्तम नगरजनों से निवसित, देवलोक की उपहासिका और जनगणमन की निर्वाहिका । मगधदेश की लक्ष्मी-सी, अन्य पाटनगरियों की आदर्शरूपा, ललिता एवं समृद्ध जनसमूहवाली वह यमुनानदी के तट पर फैली हुई थी। उदयन राजा वहाँ उदयन नाम का सज्जनवत्सल राजा था। उसमें अपरिमित बल था।Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140