Book Title: Tarangvati Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 41
________________ २९ तरंगवती जहाँ मेरा प्रियतम मृत हो पड़ा था उस जगह आया। प्रियतम के प्राणघातक यम समान भीषण ऐसे उसे देखते ही भय से तिलमिलाती मैं त्वरा से आकाश में उड इसके बाद उसने चक्रवाक को पकड़ा और अपना बाण उसमें से खेंच लिया और मरा जानकर उसे रेतीले तट पर करुणापूर्वक रखा । मेरे प्रियतम को चंद्रकिरण-समान श्वेत तट पर डालकर वह नदी के आसपास लकडियाँ ढूँढने लगा। __ वह वनचर लकड़ियाँ लेकर लौट इससे पहले मैं प्रियतम के पार्श्व में दुबक बैठी । 'हाय नाथ ! मैं तुमको यह अंतिम बार ही देख पाऊँगी। एक क्षण में तो तुम सदा के लिए दुर्लभ हो जाओगे।' इस प्रकार मैं विलाप करने लगी। इतने में वह वनचर शीघ्र ही लकड़ियाँ लेकर मेरे प्रियतम के पास आ पहुँचा । अतः मैं भी तेजी से उड गई । . हाथ में लकड़ियों के साथ उस भयावने को देख मैं सोचने लगी कि यह दुष्ट मेरे प्रियतम को इनसे ढककर जला देगा । मन में इस प्रकार बारबार सोचती दुःख से संतप्त मैं पंख फडफडाती अपने प्रियतम के ऊपर चारों ओर मंडराने लगी। तदनन्तर उसने धनुष्यबाण एवं चमडे की कुप्पी अलग रख मेरे प्रियतम को लकड़ियों से ढक दिया। इसके बाद व्याधने बाण द्वारा अरनी में आग उत्पन्न की और 'तुझे स्वर्ग मिलो' ऐसी घोषणा उच्च स्वर से की । धूमिल एवं लपट से प्रकाशित वह आग मेरे प्रियतम पर छा गई देखकर जैसे दावानल से वन भभक उठता है इस तरह मैं एकाएक शोक से झुलसने लगी। यम ने डाली आफत से संतप्त मैं अपनी निराधार स्थिति पर रोने लगी और विलपती हुई, हृदय से प्रियतम को पुकारती इस प्रकार कहने लगी : दहन के समय चक्रवाकी का विलाप सरोवर, सरिता, बावली, जलतट, तालाब, समुद्र एवं घाटों में उल्लासपूर्वक जिसने आनंदविहार किया ऐसे तुम इस दहनपूर्ण आग कैसे सह सकोगे? इस हवा के झकोरों से इस ओर से उस ओर लपकती ज्वालालपटें से दहकती अग्नि तुमको जला रही है। अतः हे कान्त ! मेरे अंग भी जलने-दहकनेPage Navigation
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