Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 51
________________ तरंगवती मध्यस्थभावमय होती है। जिसने भोग में विक्षेप के दुःख का स्वयं अनुभव किया होता है वह मनुष्य पराया दुःख देख दया एवं दीन बनता है। बल्कि लोगों में भी यह बात कही जाती है कि पूर्वभव का स्मरण हो आने पर, जो अत्यंत दारुण स्वभाव का होता है उसे भी मूर्छा आ जाती है । प्रियतम को पहचान लेने का प्रस्ताव . परन्तु मेरे प्रियतम का हृदय तो स्वभावतः वत्सल एवं मृदु ही है। अतः वह इस चित्रपट्ट को देखते ही, यह दुःख तो स्वयं जैसा अनुभव किया था वैसा ही है इतना जानकर अवश्य मूर्छित हो जाएगा। तुरंत उसका हृदय शोकाकुल और आँखें भीगी हो जायगी । वह सत्य वृत्तांत जानने के लिए आतुर हो उठेगा और यह चित्रपट्ट अंकित करनेवाले के विषय में पूछताछ करेगा । . उसे देखकर, परलोक से भ्रष्ट हो मनुष्ययोनि में अवतरित मेरे प्राणनाथ चक्रवाक को तुम पहिचान लेना । उसके नाम, गुण, रंग, रूप एवं वेशभूषा से यथेच्छ परिचित होकर यदि तुम कल तक मुझे कहोगी तब ही मैं जी सकुंगी। तो, हे सखी ! तब मेरा हृदयशोक नष्ट होगा और मैं कामभोग उसके साथ करके सुरतसुख का आनंद लुटूंगी। परन्तु यदि मेरे अल्प पुण्य के कारण वह मेरा नाथ तुम्हें हाथ नहीं लगा तो मैं जिनसार्थवाह के चिन्हित मोक्षमार्ग की शरण लूँगी । जिसका जीवन प्रिय से विरहित और धर्माचरण से रहित हो, उसका अधिक जीना निरर्थक है।" हे गृहस्वामिनी ! प्रियतम के समागम की उत्सुक मैंने चित्रपट्ट लेकर जाने को उद्यत सारसिका को ऐसा मार्गदर्शन दिया । स्वप्नदर्शन सूर्यास्त हुआ और रात अंधकार से घिरने लगी । तंब हे गृहस्वामिनी ! मैं पौषधशाला में गई । अम्मा और पिताजी के साथ दैनिक एवं चातुर्मासिक प्रतिक्रमण कर के पवित्र अरिहंतों को मैंने वंदन किया। मैं भूमि पर सोई थी। मेरी शय्या के निकट माताजी बैठी थीं। निद्रा में मुझे एक स्वप्न दिखाई पड़ा उसके अंत में जाग गई । बापुजी से मैंने उस स्वप्न की वात कही :

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