Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 53
________________ ४१ तरंगवती साथ तुम्हारा स्वप्न यह भी सूचित करता है कि पतिवियोग से तुम्हें आठ-आठ आँसू रोना भी पड़ेगा।" तरंगवती को चिंता यह सुनकर मेरे मन में आया : “यदि कोई दूसरा पुरुष पतिरूप में मुझे मिलेगा तो जीने की मेरी इच्छा नहीं है। जिसकी स्मृति से मेरा चित्त सराबोर है उसके बिना मुझे इस संसार के भोग भोगने में क्या आनंद ?" इस प्रकार की मुझे चिंता होने लगी। परन्तु गुरुजनों के सामने मेरे मन की उथल-पुथल छिपा रखी - कदाचित् मेरा अंतर्गत यह राज खुल जाये तो..... मैंने यों सोचा : 'जब तक सारसिका वापस न आ जाए तब तक मैं प्राणों को धारण करूँगी । उससे सारा वृत्तांत सुन लेने के बाद मुझसे यथाशक्य होगा वह मैं करूँगी।' • माता-पिताने मेरा अभिनंदनपूर्वक सत्कार किया । भूमि-शय्या में से उठकर मैंने सिद्धों की वंदना की । आलोचन एवं रात्री-अतिचार की गर्दा करने के पश्चात हाथमुँह आदि धोये और गुरुवंदना की। इसके बाद हे गृहस्वामिनी, मैं बिना परिचारिका के अकेली ही सागर जैसे 'सचित्त' (१. जलचरमय २. चित्रांकित) मणिकांचन एवं रत्नों से सुशोभित विशाल हयंतल (छत) पर चढ़ी। हे गृहस्वामिनी, संकल्प-विकल्प करती हुई और हृदय में उस चक्रवाक को एकाग्रचित्त से धारण करके मैं वहाँ ठहरी । - इतने में पूर्व का उद्भावक, ललाई के साथ स्निग्ध किरजावलि फैलाता, किंशुकवर्ण, जग का सहस्ररश्मिदीप सूर्य उदित हुआ। उसने जीवलोक को मसृण कुकुम-द्रव से लीप दिया और कमलसमूह को विकसित किया । सारसिका का प्रत्यागमन उसी क्षण उज्ज्वल भविष्य के लाक्षणिक स्नेहभावपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखती और प्रयास की सफलता से संतुष्ट मुखकमल से हँसती सारसिका आ गई । सुन्दर विनय एवं मधुर वचनों की खान समान वह अपने सिर पर अंजलि रच मेरे पास आ कर इस प्रकार कहने लगी : "निरभ्र आकाश में चमकते अंधकार-विनाशक शरद के पूरे चन्द्र जैसी

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