Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 55
________________ तरंगवती और कुछ तो अपने मनोनीत मित्रों से मिलने की उत्कंठा से अधीर, अविनय के (पिंड) पुतले जैसे छैले युवक टहल रहे थे। नगरी से आ पहुँचे जनसमूह का राजमार्ग पर प्रवाह, वर्षाऋतु में समुद्र से मिलने के लिए उमड़ी महानदियों के जलप्रवाह-सा दिखाई देता था । लम्बदेही लोग सुख से देख रहे थे, ठिगने तले-ऊपर नीचे करते थे। मोटे व्यक्ति जनसमूह की भीड में ढकेलाते-ठेले खाते चीख-पुकार मचा रहे थे। बीचोंबीच कुछ कालिमावाली छोटी लौवाले और तैलशून्य बत्तियोंवाले दीपक-सिर पर छोटी चुटिया रखनेवाले नष्ट से स्नेहवृत्ति अध्यापकों जैसे लगते थे । वे मानो यह सूचित कर रहे थे कि रात अब पूरी होने आई है। जैसे जैसे रात अंतिम साँसें लेने लगी, वैसे वैसे चित्रपट्ट को देखने आनेवाले लोग नींद से पलकें भारी हो जाने के कारण कम से कमतर होते जाते थे। . मैं भी तुम्हारी अत्यंत मानने योग्य आज्ञा के अनुसार वहाँ उपस्थित रहकर दीपक जलता रखने के बहाने लोगों का निरीक्षण कर रही थी। एक अनन्य तरुण प्रेक्षक ___ जब ऐसा देशकाल था तब मनचाहे मित्रवृंद के घेरे में चल रहा कोई स्वरूपवान तरुण चित्रपट्ट देखने आया । अंगों के जोड़ उसके दृढ, सुस्थित एवं प्रशस्त थे । चरण उसके कच्छप जैसे मृदु थे। पिंडलियाँ उसकी माणिक्य जैसी प्रशंसनीय थीं । . जंघाएँ सुप्रमाण थीं । वक्षःस्थल ऐसा था मानो सुवर्ण की सिल जैसे आयताकार विशाल, मांसल और चोडा था । बाहु दोनों सर्पराज के फन जैसे दीर्घ, पुष्ट एवं दृढ थे। ऐसा लग रहा था मानो दूसरा हिमांशु, पूर्णिमा के सुधांशु समान अपने मुख से, चन्द्र से भी अधिक प्रियदर्शन होने के कारण स्वैरेणियों के वदनकुमुदों को विकसित कर रहा हो । रूप, यौवन एवं लावण्य से समृद्ध श्री के कारण वहाँ उपस्थित तरुणियाँ

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