Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 42
________________ तरंगवती ३० लगे हैं । मुझे प्रियतम के संयोग से वियोग में धकेलकर हे देव ! तुम पराई विडंबना देखने के रसिया भले, तुम निर्दय होकर देखते रहो । लोहे के बने यह हृदय ! तुम पर आ पडी यह विपत्ति देखकर भी फट नहीं गया तो निःशंक ही तुम दुःख भुगतने के लायक हो । प्रियतम के संग में रहकर ऐसी आग मैं सौ बार सह सकती हूँ, लेकिन यह प्रियवियोग का दुःख मुझसे नहीं सहा जाता । सहगमन मैं इस प्रकार विलाप करती अतिशय शोक से उद्विग्न हो गई और स्त्रीसह साहसवृत्ति से मेरे मन में मरने का विचार कौंधा । तुरन्त ही मैं नीचे उतरी और प्रिय के अंग के संस्पर्श से शीतल लग रही आग में पहले हृदय झोंका, अब मैं अपनी काया झोंकने को गिरी । इस प्रकार जिसे प्रियतम के शरीर का स्पर्श हुआ था उस शरीर को मैंने मेरी ग्रीवा जैसी कुंकुमवर्णी आग में डाल दिया । जैसे मधुकरी अशोकपुष्प के गुच्छ पर झपटती है वैसे मैं आग में कूद पड़ी । धाँय-धाँय जलती स्वर्ण-सी पिंगवर्णी शिखाओं के रूप में नाचती आग मेरे शरीर को जलाने लगी फिर भी प्रियतम के बिछुडने के दुःख- पीडित मुझे आग पीडाकारक न जान पड़ी । इस प्रकार हे सारसिके, मुझसे पहले चल बसे मेरे प्रियतम के शोकाग्नि की ज्वाला से भभक उठी मैं उस आग में जल मरी । वृत्तांत की समाप्ति हे गृहस्वामिनी, प्रियतम एवं मेरी मृत्यु का वृत्तांत-कथन के दरम्यान उत्पन्न दुःख के कारण मैं मूच्छित होकर लुढक पड़ी । होश आने पर मन एवं हृदय से व्यथित मैंने धीरे-धीरे सारसिका से कहा : 'जल मरने के बाद मैंने इस कौशाम्बी नगरी के सर्वगुणसम्पन्न श्रेष्ठी के घर जन्म लिया । शरद के अंग जैसे चक्रवाकों को इन जलतरंगों पर विहरते देखकर हे सखी! मुझमें तीव्र उत्कंप

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