Book Title: Tarangvati Author(s): Pritam Singhvi Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth PratishthanPage 47
________________ तरंगवती सब मेरी बराबरी के नहीं होने से, हे सेठानी ! उन सबका पिताजी ने अस्वीकार किया। इस विषय की बातों एवं गुणकीर्तन के प्रसंगों में बारबार उसके उल्लेख के कारण मेरा प्रियतम ही मेरी आँखों में आँसू के रूप में उमड आता था । मैं पूर्व भव के मेरे उस देहसंबंध का बारबार स्मरण करती थी इससे मानो मुझ से मेरी भोजनरुचि कोपायमान हो रूठकर चली गई । - हे गृहस्वामिनी ! मैं अत्यंत दुखित हो गई थी इसलिए स्नान एवं सिंगार मुझे जहर-से लगते थे। वडीलों एवं कुटुंबीजनों से मेरा हृदयभाव छिपाने के लिए मैं निरसतापूर्वक ये क्रियाएं करती रहती थी। यदि मेरे जीवन में मनोरथ की लहरें उमडती न होती तो मैं प्रियतम के संग से बिछुडी एक क्षण भी जीवित न रह सकती । ___ऋतु के कारण प्रचंड पवन स्वैर-विहारी होकर भ्रमण-चक्कर लगाता, कामदेव के बाण जैसा, सप्तछद-सौरभित, सुखीजनों को शाता दे रहा था, किन्तु मुझे तो पीडा पहुँचा रहा था । मदन के शप्रहार जैसे लग रहे तिमिरनाशक चंद्रकिरणों का स्पर्श एक क्षण भी सह नहीं सकती थी। कुमुदवन में अमृतवर्षा जैसी, अत्यंत परितोष देनेवाली शीतल ज्योत्सना भी मानो उष्ण हो मेरे अंगों को दाह पहुँचा रही थी। हे गृहस्वामिनी, विषयसुख की तृप्ति करानेवाले पाँच प्रकार के इष्ट इन्द्रियार्थ भी मुझे प्रियतम के बिना शोक में डाल देते थे । तब प्रियतम को पाने के लिए, सब मनोरथ पूरे करानेवाले एक सो आठ आयंबिल करने का मैंने संकल्प किया। सभी दुःखों का नाशक और सारे सुखों का उत्पादक ऐसे उस व्रत को करने की मुझे प्रसन्न करने के लिए वडीलों ने संमति प्रदान की। मैं आयंबिल व्रत करने से दूबली-पतली हो गई हूँ ऐसा मेरे स्वजनों एवं परिजनों ने माना । कामदेव के बाणों से सूखकर मैं कांटा बन गई हूँ यह वे ताड न सके ।Page Navigation
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