Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 26
________________ १४ तरंगवती वनभोजन के लिए जाने का प्रस्ताव , उसी क्षण अम्मांने पिताजी से इस प्रकार विनती की, 'बेटी से वर्णित वह सप्तपर्ण का वृक्ष देखने का मुझे अदम्य कुतूहल है।' पिताजीने कहा, 'बहुत अच्छा ! तुम सब स्वजन समेत उसे देखने कलजाना और वहाँ के सरोवर में तुम्हारी पुत्रवधुओं के साथ स्नान करना।' पिताजीने तुरन्त घर के वडीलों और कारबारियों को आज्ञा की, 'कल उद्यान में स्नानभोजन होगा । उसके लिए आयोजन का आवश्यक प्रबंध कर लेना । सुशोभित वस्त्रादि एवं गंधमाल्य भी तैयार रखना - महिलाएँ वहाँ के सरोवर में स्नान के लिए जाएंगी।' - हे गृहस्वामिनी, धावों, सखियों और मेरी सब भावजों ने मुझे तुरंत अभिनंदित करते हुए घेर ली। तत्पश्चात् धाव ने मुझसे कहा, 'बेटी, तुम्हारा भोजन इस वक्त तैयार है। तो भोजन करने बैठ जाओ। वरन् भोजनसमय बीत जाएगा। बेटी, जो समय होने पर भी भोजन नहीं करता उसकी जठराग्नि बिना ईधन की आग की तरह बुझ जाती है। कहा जाता है कि यदि जठराग्नि बुझ जाती है तो वर्ण, रूप, सुकुमारता, कान्ति एवं बल का नाश होता है। तो बेटी, चलो भोजन । कर लो, जिससे समय बीत जाने पर होता दोष कोई तुम्हें न लगे।' ' इस प्रकार उसने मुझे अत्यंत भावना से कहा । अतः उपरोक्त उचित समय का ध्यान रखकर मैंने वर्ण, गंध, रस इत्यादि सर्वगुणसम्पन्न भात का भोजन किया। उसका शालि कैसा था ?। यथोचित जोती हुई एवं दूधसिंचित क्यारियों में बोया गया, तीन बार उखाडकर दाब-दूब कर रोपित, उचित रूप से बढ़कर पुष्ट होने पर काटा, मसला-कूट गया था । चंद्र और दूध जैसा उमदा श्वेत वर्णवाला उसका भात नरम, गाढ़ी स्निग्धतायुक्त, गुण नष्ट न हो इस तरह पकाया हुआ, भाप सहित गरमागरम, सुगंधित घी से यथोचित तर्पित और चटनी, पानक इत्यादि से युक्त था। हे गृहस्वामिनी, इसके बाद दूसरे पात्र में मेरे हाथ धुलवाये और सुगंधित रेशमी वस्त्र से मेरे हाथ पोंछ तब मैंने हाथपैर के शृंगार हेतु अल्प घी एवं तेल का मर्दन किया । कल वनभोजन के समारंभ में जाना है यह सुनकर घर की युवतियों के मुख पर हार्दिक उमंग घोषित करनेवाला हास्य छा गया था । शीघ्र ही जिससे

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