Book Title: Tarangvati
Author(s): Pritam Singhvi
Publisher: Parshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan

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Page 31
________________ तरंगवती १९ उन भ्रमरों को मैं अपने कोमल करों से हटाने लगी । इस तरह हाथ से रोकने से तो उलटे वे अधिक से अधिक निकट आ ही गये - मानती हूँ कि, शायद पवन से हिलते पल्लवों से परिचित होने के कारण वे डरते न थे। भ्रमरभ्रमरियों के झुंडों के कारण मैं प्रफुल्ल चमेली-सी दिखाई पड़ती थी। डर के कारण मुझे पसीना आ गया, में थरथर काँपने लगी और मैं जोर से चीख उठी। परंतु मत्त भ्रमरभ्रमरियों के झुंडों की झनकार में और भिन्न भिन्न पक्षियों के बडे शोर-शराबे में मेरी चीख की आवाज डूब गई । घोडे की लार से भी अधिक महीन उतरीय से मैं भ्रमरों को रोकती अपना मुख ढाँप कर उनके डर से भागी। दौड़ते-दौड़ते, कामशरों के निवास-समान, चित्रविचित्र रत्नमयी मेरी मेखला मधुर झंकार के साथ टूट गई । अतिशय भयभीत हो जाने के कारण, हे गृहस्वामिनी, मैं मेखला का टूट जाने की ओर ध्यान दिये बिना बहुत मुश्किल से ऐसे कदलीमंडप में पहुँच गई जो भ्रमरों से मुक्त था । · अतः एकाएक गृहदासी वहाँ दौडकर आई और आश्वासन देते हुए उसने मुझसे कहा, 'हे भीर, भ्रमरों ने तुम्हें दुःखी तो नहीं की न ?' कमलसरोवर ___सुवर्णवलय से झलकते बाँये हाथ से दासी का आधार लेकर मैं उस कमलसर को देखने लगी : उसमें निर्भय होकर कलरव करते और जोड़ी में घूमते तरह तरह के पक्षीयुगलों का निनाद उठ रहा था । उसमें विकसित कमलों के झुंड के झुड थे जिनमें भ्रमर निमग्न हुए थे। प्रफुल्ल कोकनद, कुमुद, कुवलय एवं तामरस के समूह से वह सर्वत्र ढक गया था । मैं उद्यान की पताका-सा कमलसरोवर देखने में मग्न हुई। हे गृहस्वामिनी, वह रक्तकमलों से संध्या का, कुमुदों के कारण ज्योत्स्ना का तो नीलकमलों द्वारा ग्रहों का भाव धारण करता था । भ्रमरियों के गुंजार से वह मानो ऊँची आवाज में गीत गा रहा था।

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