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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३ / जुलाई-सितम्बर २००८
कारण कोयल अर्थ में शक्तिग्रह होता है । कुछ लोग हाथ के इशारे को नवें प्रकार का संकेतग्रहसाधक मानते हैं। जैसे- कोई व्यक्ति उँगली के संकेत से किसी अज्ञ को कहे 'इयं ते माता' तो वह बालक माता पद के अर्थ का ग्रहण कर लेता है और इस संकेत ग्रह का साधन हस्त संकेत बनता है।
३२ :
जैन दर्शन में शब्दार्थ के निर्धारक कारकों के रूप में दो प्रमुख मतों की चर्चा है, वे हैं - नय सिद्धान्त तथा निक्षेप सिद्धान्त। नय एवं निक्षेप दोनों ही सिद्धान्त शब्दार्थ निर्धारक सिद्धान्त हैं, किन्तु इनमें कुछ अन्तर है। नय वाक्य के अर्थ का निश्चयन करता है तथा निक्षेप मूलतः शब्द के अर्थ का निश्चय करता है। वक्ता का अभिप्राय ही नय है । " वस्तुतः नय वह सिद्धान्त है जिसके आधार पर वक्ता के आशय एवं कथन के तात्कालिक सन्दर्भ को सम्यक् प्रकार से समझा जा सकता है। इसी प्रकार निक्षेप वह सिद्धान्त है जिससे प्रकरण आदि के अनुसार अप्रतिपत्ति आदि का निराकरण होकर शब्द के वाच्यार्थ का यथास्थान विनियोग होता है।
शब्द शक्तियाँ
शब्द से अर्थ की अवगति मानने वाले सभी आचार्य शाब्दबोध में शक्ति को सहकारी कारण मानते हैं । १२ पद में समवेत रहने वाली और अर्थ के प्रकाशानुकूल सामर्थ्य शक्ति कहलाती है। १३ इसी शक्ति को न्यायदर्शन में 'वृत्ति' कहा गया है। सामान्यतः शब्द- शक्तियों पर विचार करने वाले आलंकारिकों ने अभिधा, लक्षणा और व्यंजना- तीन शब्द-शक्तियों को स्वीकार किया है, परन्तु नैयायिकों का आलंकारिकों से यहाँ मतभेद है। नैयायिक शक्ति और लक्षणा केवल दो ही वृत्तियाँ स्वीकार करते हैं। १४ व्यंजना का स्वतन्त्र वृत्तित्व इन्हें स्वीकार्य नहीं है।
न्याय परम्परा के अनुपालन में जयन्त भट्ट ने भी अभिधा और लक्षणा दो ही वृत्तियों को स्वीकार किया है। अभिधावृत्ति तो शब्दगत मुख्यवृत्ति रही है । अत: इसकी स्वीकृति में सबका अविरोध है । जयन्त भट्ट का मत है कि जिस पद के उच्चारण से नियमपूर्वक जो अर्थ उपस्थित होता अथवा समझा जाता है, वह उसका अभिधेयार्थ होता है । १५ जयन्त भट्ट जहाँ पदार्थ और वाक्यार्थ पर विचार करते हैं वहाँ स्पष्टतः उनका तात्पर्य पद और वाक्य के जिस अर्थ से है, वह मुख्य और अभिधाजन्य अर्थ है । १६ न्यायमञ्जरी के एक प्रसंग में जयन्त भट्ट लक्षणा को स्पष्टतः स्वीकार करते हैं । १७ लक्षणावृत्ति शब्दागत गौणवृत्ति है । लक्षणा के विषय में जयन्त भट्ट का मत है कि वाक्यगत सभी पद निश्चिन्ततया एक अर्थ को स्पष्ट करते हैं, परन्तु पद द्वारा सदा एक ही प्रकार का अर्थ प्रकाशित होगा- यह आवश्यक नहीं है । पद कभी अपना मुख्य अर्थ देते हैं और कभी अपना गौण अर्थ प्रस्तुत करते हैं। यदि वाक्य का मुख्य अर्थ अविरुद्ध और अबाधित हो, तब सभी पदों में अभिधा शक्ति की अवस्थिति माननी चाहिए, परन्तु
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