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श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८
आकाश के कारण ही विस्तार संभव होता है। आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता। इसका अस्तित्व अनुमान के द्वारा सिद्ध होता है। द्रव्यों का कायिक विस्तार स्थान के कारण ही हो सकता है। आकाश के बिना अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार सर्वथा असंभव है। द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है और आकाश द्रव्य के द्वारा व्याप्त होता है। जैन दार्शनिकों ने आकाश के भेद के रूप में लोकाकाश और अलोकाकाश को स्वीकार किया है। जो जीवों तथा अन्य द्रव्यों का आवास-स्थान है वह लोकाकाश है तथा जो लोकाकाश के परे है वह अलोकाकाश है।
काल की महत्ता को स्पष्ट करते हुए उमास्वाति ने कहा है कि द्रव्यों की वर्तना, परिणाम, क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व काल के कारण ही संभव होता है।११ काल न हो तो वर्तना, परिणाम, क्रिया, नवीनता, प्राचीनता आदि कुछ भी संभव नहीं है। इनका अस्तित्व ही यह सिद्ध करता है कि काल है। यह अस्तिकाय द्रव्य नहीं है। यह एक अखंड द्रव्य है। पारमार्थिक काल तथा व्यावहारिक काल के रूप में काल के दो भेद हैं। वर्तना पारमार्थिक काल के कारण होती है। अन्यान्य परिवर्तन व्यावहारिक काल के कारण होते हैं। क्षण, मुहूर्त, प्रहर आदि में व्यावहारिक काल या समय ही विभाजित होता है। समय का प्रारम्भ और अन्त होता है, किन्तु पारमार्थिक काल नित्य तथा निराकार है। कुछ जैन दार्शनिक काल को भिन्न या स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते हैं, बल्कि अन्य द्रव्यों का ही एक पर्याय मानते हैं।२२
जैन दर्शन के अनुसार धर्म और अधर्म क्रमश: गति और स्थिति के कारण हैं। धर्म और अधर्म का अस्तित्व अनुमान से सिद्ध होता है। मछली ही अपनी गति को प्रारंभ करती है किन्तु जल ही वह सहायक द्रव्य है जिसके कारण गति संभव हो पाती है। जैन मान्यतानुसार यही धर्म है। धर्म और अधर्म गति एवं स्थिति के निराकार तथा उदासीन कारण हैं। ये स्वयं क्रियाशील नहीं हैं। आकाश, काल, धर्म और अधर्म को एक विशेष अर्थ में कारण स्वीकार किया गया है। ये साधनों के ही अन्दर आ सकते हैं किन्तु साधारण साधनों से कुछ भिन्न है। साधारण साधनों की तरह ये प्रत्यक्ष ढंग से सहायक नहीं होते हैं और न ये उनकी तरह क्रियाशील ही रहते हैं। उदारवादी आचारमीमांसा
जैन दर्शन का प्रधान उद्देश्य है बंधन से मुक्ति। जैन दार्शनिकों के अनुसार जीव को ही बंधन के दुःख भोगने पड़ते हैं। जीव चेतन द्रव्य है। यह स्वभावतः पूर्ण है, अनन्त है। शरीर धारण करने के कारण ही इसके सामने अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं। शरीर पुद्गल से बनता है। विशेष प्रकार के शरीर के लिए विशेष प्रकार के पुद्गल की आवश्यकता होती है और उसका विशेष प्रकार से रूपांतरण होता है। जीव
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