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साहित्य सत्कार : १३५
देता है। बन्धन के नष्ट होने से जीव में संवर और निर्जरा की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। संवर और निर्जरा के पूर्ण होने पर जीव को मुक्ति की प्राप्ति होती है।
पुस्तक का तृतीय खण्ड संग्रहीत खण्ड है जिसमें सम्यक्-दर्शन की विभिन्न परिभाषाओं तथा उनमें अन्तर्सम्बन्धों की चर्चा की गई है। 'सम्यक्-दर्शन ही मोक्ष मार्ग में प्रधान है' की विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए उसके भेद-प्रभेद, सम्यक् शब्द का महत्त्व, सम्यक्-दर्शन व सम्यग्ज्ञान में भेद, विभिन्न लक्षणों का समन्वय आदि की विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। इस परिचर्चा से एक ओर जहाँ जैन धर्म-दर्शन की विशद्ता का ज्ञान होता है वहीं दूसरी ओर धर्म में उपस्थित विलक्षणता में विश्वधर्म बनने की संभावना की झलक भी दिखायी देती है।
प्रस्तुत पुस्तक जहाँ एक ओर दर्शन की गुह्यता को सरल बनाती है वहीं दूसरी ओर धर्म की मार्मिक रोचकता को संदेहात्मक नहीं बनते देती। साथ ही दोनों की तार्किक वैज्ञानिकता को पुष्ट आधार भी प्रदान करती है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।
डॉ० जयन्त उपाध्याय दर्शन एवं धर्म विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी
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