Book Title: Sramana 2008 07
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 183
________________ संस्कृत छाया : रागान्धकार-मोहित-नराणां दृष्टवा इव तादृक् चरितम् | दूरं नासित-तिमिरोऽथ सहसोद्गतः सूरः ।।६१|| गुजराती अर्थ :- रागरूपी अन्धकारथी मोहित थयेला मनुष्योना तेवा प्रकारना चरित्रने जोइने जाणे अंधकारने नष्ट करेतो सूर्य अचानक दूरथी ऊग्यो । हिन्दी अनुवाद :- रागरूपी अंधकार से मोहित हुए मनुष्यों के वैसे चरित्र देख के मानो अंधकार को नष्ट करता हुआ सूरज अचानक दूर से आया। गाहा : तत्तो य तीए भणियं सामिय! गाढं पिवासिया अहयं । सूसइ गलयं अज्जवि केदूरे अम्ह तं नयरं? ।।६२।। संस्कृत छाया : ततश्च तया भणितं स्वामिन् ! गाढं पिपासिताऽहकम् । शुष्यति गलकमद्यापि कियद् दूरं वा तद् नगरम् ।।६२|| गुजराती अर्थ :- व्यारे तेणीए कहयुं, हे स्वामिन्! मने बहु तरस लागी छे गळु सुकाय छे, पण आपणुं ते नगर केटलुं दूर छे?! हिन्दी अनुवाद :- तब उसने कहा- हे स्वामिन्! मुझे बहुत प्यास लगी है, गला भी सूख गया है, किन्तु हमारा वो नगर कितना दूर है? गाहा : दूरे अज्जवि नयरं सुंदरि इत्थ वण-निगुंजम्मि। ओयरिमो जं होही इत्थ जलं एव मे भणिए ।। ६३।। संस्कृत छाया : दूरे अद्यपि नगरं सुन्दरि! अत्र वननिकुञ्ज । अवतरावो यद् भविष्यत्यत्र जलमेवं मया भणितम् ।।६३।। गुजराती अर्थ :- त्यारे में कहयु ! हे सुन्दरी ! हजी पण नगर दूर छे छतां आपणे अहीं जंगलनी गीच झाडीमां उतरीये। अहीं पाणी मळशे। हिन्दी अनुवाद :- तब मैंने कहा- हे सुन्दरी! अपना नगर तो दूर है, फिर भी हम . यहां जंगल के बीच झाड़ी में जायें, यहाँ पानी मिलेगा! गाहा : तत्तो दोवि जणाई अवइन्नाई वणम्मि रम्मम्मि । सीयल-जल-पडिपुन्नं अह दिटुं तत्थ निज्झरणं ।।६४।। १. केदूरे = कियड्रम् 340 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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