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अपभ्रंश जैन कवियों का रसराज - ‘शांत रस' :
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इसमें वीर, श्रृंगार और शांत तीनों रसों की अभिव्यंजना हुई है। महाकाव्य में एक ओर जहाँ वासुदेव और प्रतिवासुदेव के संघर्ष में वीर रस की सरसता है तो दूसरी ओर सीता के नख-शिख सौंदर्य का माधुर्य है। एक ओर वियोग वर्णन में हृदय को स्पर्श करने वाली करुण वेदना की चित्कार है तो दूसरी ओर निर्वेद भाव को जागृत करने वाला संसार की असारता का दिग्दर्शन है। इस प्रकार रस की दृष्टि से तीन रसों का वर्णन है- वीर, श्रृंगार और शांत । लेकिन वीर और शृंगार का समाहार शांत रस में होता है। सातवीं संधि में त्रिभुवन की सेवा करने वाले ऋषभदेव यह विचार करते हैं कि संसार में शाश्वत कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार नीलांजना नौ रसों का प्रदर्शन कर चली गई उसी प्रकार दूसरा भी संसार से चला जायेगा। अनेक शरीरों का नाश करने वाले इस दारुण संसार में दो दिन रहकर कौन-कौन नरश्रेष्ठ नहीं गये। इस संसार में धन इन्द्रधनुष की भाँति क्षण में नष्ट हो जाता है। हाथी, घोड़े, रथ, धवल छत्र पुत्र कलत्र कुछ भी स्थायी नहीं है। सभी अन्धकार के समान नष्ट हो जाते हैं। कमल के घर में रहने वाली विमल लक्ष्मी नवजलधर के समान चंचल और विद्वानों का उपहास करनेवाली होती है। शरीर लावण्य और रंग एक पल में क्षीण हो जाते हैं और काल रूपी भ्रमर उन्हें मकरन्द की तरह पी जाता है। यौवन इस प्रकार विगलित हो जाता है मानो अंजुली का जल हो। मनुष्य इस प्रकार गिर जाता है जैसे पका हुआ फल हो।
धनपाल विरचित 'भविसयतकहा' के तीन खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में भविसयत जो एक वणिक पुत्र है की सम्पत्ति का वर्णन है। इस खण्ड में श्रृंगार रस की प्रधानता है। कवि ने नारी के सौन्दर्य को अंकित करने के साथ-साथ धार्मिक भावना की ओर भी संकेत किया है। द्वितीय खण्ड में कुरुराज और तक्षशिलाराज के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। इस खण्ड में वीर रस की प्रधानता है। युद्ध का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है कि घोड़ों के तीक्ष्ण खुर के अग्र भाग के संघर्षण से उद्भूत रज से तोरण रहित युद्धभूमि आछन्न हो गई। वह रज मानो जैसे योद्धाओं की क्रोधाग्नि से उत्पन्न धुंआ हो। तृतीय खण्ड में भविसयत तथा उसके मित्रों के पूर्वजन्म और भविष्य जन्म का वर्णन है। इस खण्ड में शान्त रस की प्रधानता है।
निष्पक्ष रूप से देखें तो श्रृंगार रस, वीर रस और शान्त रस का परिपाक इस ग्रन्थ में हुआ है। यदि कथा का विवेचन करें तो निश्चय ही इसमें वीर रस की प्रधानता परिलक्षित होती है। भविसयत द्वारा सुमित्रा को अपने शौर्य का परिचय देना तथा सिन्धु राजा का भविसयत द्वारा पराजित होना तत्पश्चात् सुमित्रा के साथ भविसयत का विवाह होना आदि वीर रस की प्रधानता को ही दर्शाता है। धीरता, वीरता, साहस आदि गुण भविसयत में कूट-कूट कर भरे हैं। इस प्रकार वीर रस का कथा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। लेकिन यहाँ वीर रस की परिणति शृंगार रस में है, कारण कि युद्ध के मूल में राज्य
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