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: श्रमण, वर्ष ५९, अंक ३/जुलाई-सितम्बर २००८
पर प्रकाश डालते हुए रसराज की स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया है, क्योंकि अपभ्रंश काव्य विशाल भंडार अपने में संजोये हुए है। सभी को यहाँ स्पष्ट करना संभव नहीं है। प्रायः सभी अपभ्रंश रचनाओं में सभी रसों का समावेश हुआ है। इस सन्दर्भ में अपभ्रंश के पउमचरिउ, हरिवंशपुराण या रिट्ठणेमिचरिउ आदि काव्य ग्रन्थों को उद्धृत किया जा सकता है।
रस की द्रष्टि से अपभ्रंश काव्यों में मुख्य रूप से तीन रसों का वर्णन मिलता है- श्रृंगार, वीर और शांत । काव्यों में सौन्दर्य वर्णन में श्रृंगार; पराक्रम व युद्ध वर्णन में वीर और संसार की नश्वरता बताने के लिए शांत रस का उल्लेख है, परन्तु शांत रस की प्रधानता अपभ्रंश काव्यों की विशेषता है। इनमें जीवन के यौवनावस्था में सुख भोग तथा सुंदरियों के साथ भोग विलास के प्रसंगों द्वारा श्रृंगार रस की व्यंजना की गई है, तो जीवन के कर्मक्षेत्र में अवतरित होकर कर्मभूमि में पराक्रम के दर्शन द्वारा वीर रस को अभिव्यक्त किया गया है। जहां वीरता के प्रदर्शन से चमत्कृत नायिका आत्मसमर्पण कर बैठती है, वहीं वीर रस श्रृंगार रस का सहायक होकर आता है। जहां झरोखे में बैठी सुन्दरी की कल्पना से नायक वीरता प्रदर्शन के लिए संग्राम भूमि में उतरता है, वहीं दूसरी ओर वह जीवन की असारता को जान दीक्षा भी ग्रहण करता है। इस प्रकार श्रृंगार और वीर दोनों रसों की कोई भी स्थिति हो, दोनों का पर्यवसान शांत रस में दिखाई देता है।
स्वयंभू विरचित 'पउमचरिउ' पाँच काण्ड और नब्बे संधियों में विभक्त हैउन्चालीसवीं सन्धि में जब सीता का हरण हो जाता है और राम सीता की खोज करतेकरते जब थक जाते हैं तब कवि ने संसार की असारता को दिखाते हुए राम के मन में शान्त रस के द्वारा विरक्ति पैदा करने का प्रयत्न किया है-विरहानल ज्वाला से राम का शरीर तप्त है। खिन्न मन से वे विचार करते हैं कि सचमुच संसार में सुख नहीं है, सचमुच संसार में दुःख सुमेरु पर्वत के समान है। सचमुच जन्म, जरा-मरण का भय बना रहता है। सचमुच जीवन पानी के बुलबुले की भाँति क्षणभंगुर है। यह किसका घर? किसके माता-पिता और किसके सुधीजन? किसके पुत्र, किसके मित्र, किसकी स्त्री, किसका भाई, किसकी बहन, जब तक कर्मफल है तभी तक बन्धु और स्वजन हैं। ये ठीक उसी तरह हैं जैसे वृक्ष पर पक्षियों का वास होता है।
पुष्पदंत विरचित 'महापुराण' महाकाव्य तीन खण्डों तथा १०२ संधियों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में ३७ संधि, द्वितीय खण्ड में ३८ से ८० संधि तथा ततीय में ८१ से १०२ संधियाँ निबद्ध हैं। इन संधियों में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव और ९ बलदेव, इन ६३ महापुरुषों के चरित्र का वर्णन है।
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