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जैन दर्शन में जीव का स्वरूप +9 ५९
तत्त्वों में भी विश्वास करते हैं। लेकिन इस सन्दर्भ में हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि भारतीय दर्शन के इतिहास में आत्मतत्त्व और जड़तत्त्व में इस तरह का विरोध वैसा नहीं है जैसा कि पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट्स आदि के विचारों में देखने को मिलता है। तैत्तिरीयोपनिषद् को देखने से इस बात को और अच्छी तरह से समझा जा सकता है, क्योंकि वहाँ विभिन्न वार्तालापों, जिसके अन्तर्गत आनन्दमय कोष, विज्ञानमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष और अन्नमय कोष की चर्चा की गई है, के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि जड़ और आनन्द (चेतन) ये सब एक ही सत्ता विभिन्न आयाम हैं। जैन दर्शन में भी इस बात की पुष्टि होती है, तभी तो जैन दार्शनिक जीव में चेतना और विस्तार दोनों की सत्ता को स्वीकार करते हैं।
सन्दर्भ :
१. भगवई, विवेचक मुनि नथमल, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं,,
२०.२.१७.
'उपयोगो लक्षणम्', तत्त्वार्थसूत्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, २.८ उत्तरज्झयणाणि, विवेचक सम्पा० आचार्य महाप्रज्ञ, २८.११.४४१.
२.
३.
४.
वही, २८.११.४५१.
५.
शर्मा, चन्द्रधर, भारतीय दर्शन : एक अनुशीलन, पृ० ४१ ६. कालओ ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवति ण कयाइ भविस्सई त्ति...
भुवि भवति य भविस्सति य धुवे णिइए साससे अक्खए अव्व अवि णिच्चे | ठाणं, विवेचक मुनि नथमल, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं,
५.३.१७०
द्रव्यसंग्रह, आचार्य नेमिचन्द्र, गाथा ५.
यः पणिमति स कर्ता, समयसार, आ० टीका, गाथा ८६
७.
८.
९. प्रवचनसार, तत्त्वदीपिका टीका, २९
१०. समयसार, आत्मख्याति टीका, ८४ ११. भगवई, १.३.११८.७२
१२. संसारिणी मुक्ताश्च । तत्त्वार्थसूत्र, २/१०
१३. आवश्यकनिर्युक्ति, हरिभद्रवृत्ति, ७८६.
१४. उत्तरज्झयणाणि, विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ, ३६.६६-६७.६०७. १५. संसारिणस्त्रसस्थावराः । तत्त्वार्थसूत्र, २ / १२
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