________________
१६ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
श्रावक, विरत अनन्त वियोजक, दर्शन मोह क्षपक (चारित्र मोह), उपशमक उपशान्त (चारित्र) मोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ऐसी दश क्रमशः विकासमान स्थितियों का चित्रण हुआ है,१३ जिनमें मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) और अयोगी केवली को छोड़कर १० गुणस्थानों के नाम प्रकारान्तर से मिल जाते हैं। इसी प्रकार तत्त्वार्थसत्र के नवम अध्याय के परीषह-प्रसंग में बादर-सम्पराय, सूक्ष्म-सम्पराय, छद्मस्थ वीतराग एवं जिन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है१४ तथा ध्यान प्रसंग में अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और केवली शब्दों का प्रयोग हुआ है;१५ किन्तु गुणस्थान का एवं उसके व्यवस्थित स्वरूप का निरूपण तत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त नहीं होता है। डॉ० सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक में यह बात भी कही है कि तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास का जो क्रम है उसकी गुणस्थान-सिद्धान्त से भिन्नता है। गुणस्थान-सिद्धान्त में यह माना जाता है कि उपशमश्रेणी वाला जीव क्रमश: आठवें, नवें एवं दशवें गुणस्थान से होकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव आठवें, नवें एवं दशवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाता है जबकि उमास्वाति यह मानते हुए प्रतीत होते हैं कि चाहे दर्शनमोह के उपशम और क्षय का प्रश्न हो या चारित्रमोह के उपशम या क्षय. का प्रश्न हो, पहले उपशम होता है और फिर क्षय होता है। डॉ० सागरमल जैन इस सम्बन्ध में अपना मन्तव्य देते हुए लिखते हैं- उमास्वाति के समक्ष कर्मों के उपशम और क्षय की अवधारणा तो उपस्थित रही होगी; किन्तु चारित्रमोह की विशुद्धि के प्रसंग में उपशमश्रेणी और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की अवधारणा विकसित नहीं हो पायी होगी। इसी प्रकार उपशम श्रेणी से किये गये आध्यात्मिक विकास से पुनः पतन के बीच
की अवस्थाओं की कल्पना भी नहीं रही होगी।१६ २.
दिगम्बर ग्रन्थ कसायपाहुड को वे गुणस्थान-सिद्धान्त की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र के समकालीन मानते हैं। कसायपाहुड में भी न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है
और न ही गुणस्थान सम्बन्धी १४ अवस्थाओं का सुव्यवस्थित निरूपण हुआ है। कसायपाहुड में गुणस्थान से सम्बद्ध ये पारिभाषित शब्द प्रयुक्त हुए हैं— मिथ्यादृष्टि, सम्यक मिथ्यादृष्टि (मिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत/विरताविरत (संयमासंयम), विरतसंयत, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह१७ आदि। कसायपाहुड एवं तत्त्वार्थसत्र की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में सम्यक् मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अनुपस्थित है जबकि कसायपाहुड में इस पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है। तत्त्वार्थसूत्र में जो अनन्तवियोजक की अवधारणा का प्रयोग हुआ है वह कसायपाहुड में प्राप्त नहीं होता। उसके स्थान पर उसमें दर्शनमोह उपशमक की अवधारणा पायी जाती है। कसायपाहुड में एक अन्य विशेष अवस्था सूक्ष्म-सम्पराय का नाम आया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org