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समराइच्चकहा में व्यवसायों का सामाजिक आधार
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आभूषण उद्योग- समराइच्चकहा३३ में सुवर्णकारों का उल्लेख है। ये सोने-चाँदी आदि धातुओं से विभिन्न प्रकार के आभूषण तैयार करते थे। धातुओं को तपाकर आभूषण तैयार करने की विधि आभूषण बनाने में की जाती थी। हरिभद्रकालीन प्रचलित आभूषणों में कुण्डल३४ (कर्णाभूषण), कटक (कलाई में पहने जाने वाला आभूषण), केयूर३५ (नुपूर-पैर का आभूषण), मुद्रिका (अंगूठी), कंकण३६ (कलाई का आभूषण), रत्नावली ३७ (रत्नों की माला), हार, ३८ एकावली३९ (मोतियों की एक लड़ी की माला), मणिमेखला (करधनी), कटिसूत्र (कमर का अलंकरण), कण्ठक४० (कण्ठ या गले का आभूषण), मुकुट (सिर पर धारण करने वाला अलंकरण), चूणामणि १ (केशों में धारण किया जाने वाला आभूषण) आदि प्रमुख थे। ये विविध प्रकार के आभूषण इस उद्योग की प्रगति के परिचायक हैं।
लौह-व्यवसाय- लोहे की जनोपयोगिता इसके प्रारम्भिक काल से ही चली आ रही है। समराइच्चकहा में लोहे के कुछ उपकरणों यथा लोहपिंजर, लोह शृङ्खला, लोहे की कीलों आदि का अनेक बार उल्लेख हुआ है। लोहे की बनी वस्तुओं में कुदाली, फरसा, छुरी, सूई, आरा, नहनी आदि के नाम एवं कार्य का वर्णन अन्य जैन ग्रन्थों में भी किया गया है।४२ लोहे की भट्ठियों में कच्चा लोहा पकाया जाता था और फिर नेह (अहिकरणी) पर रखकर कूटा जाता था। इस प्रकार लोहे को हथौड़े से कूट, पीट एवं काट-छाँट कर उपयोगी वस्तुएँ तैयार की जाती थीं।
अन्य व्यवसाय- समराइच्चकहा में विवेचित अन्य उद्योग-धन्धों में चमड़े का व्यवसाय करने वालों को चर्मकार कहा गया है।४३ चित्रकारी का व्यवसाय प्रचलित था, मकानों, वस्त्रों, बर्तनों एवं कागजों आदि पर चित्र बनाया जाता था।
प्राचीन जैन ग्रन्थों की तरह कुछ हिंसक कर्मों को समराइच्चकहा में भी 'खरकर्म' की श्रेणी में रखा गया है तथा इसे जैन मतानुयायियों के लिए वर्जित किया गया है।४४ लेकिन ये कर्म समाज में व्यवहार में लाये जाते थे तथा कुछ लोगों की जीविका के आधार थे। इन निषिद्ध व्यवसायों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है
इंगालकम्म५- कोयला, ईंट आदि बनाकर बेचने वाला कर्म इंगालकम्म कहा जाता था।
वणकम्म४६- जंगलों से लकड़ियाँ काटकर तथा उसे बेचकर आजीविका चलाना वणकम्म कहा जाता था।
भडियकम्म- भाड़े पर घोड़े, गाड़ी, खच्चर और बैल आदि से बोझ ढोकर आजीविका चलाना।
दंत वाणिज्य७- हाथीदाँत आदि का व्यवसाय करना।
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