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१७४ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
अकलंक न्याय के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से निबन्धों में अकलंकदेव की विविध दृष्टियों को प्रकाशित किया है जिससे न्याय जैसे कठिन विषय को स्पष्टता एवं सरलता प्राप्त हुई है। श्रद्धेय पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री और पं० दरबारी लाल कोठिया के निबन्धों के सङ्कलन से इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है। जैन न्याय में रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। सम्पादकगण- डॉ० कमलेश कुमार जैन, डॉ० जय कुमार जैन तथा डॉ० अशोक कुमार जैन द्वारा किया गया सम्पादन कार्य सराहनीय है। इन युवा विद्वानों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं और इन लोगों से आशा है कि आगे भी संगोष्ठी, संकलन, सम्पादन आदि कार्यों से ये जैन साहित्य को समृद्ध करते रहेंगे। पुस्तक की साजसज्जा आकर्षक और मुद्रण त्रुटिरहित है।
- डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा उत्तराध्ययनसूत्र (दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व), साध्वी डॉ० विनीत प्रज्ञा, प्रकाशक- श्री चन्द्रप्रभु महाराज, जूना जैन मन्दिर ट्रस्ट, ३४५, मिन्ट स्ट्रीट, साहुकारपेठ, चेन्नई-६०००७०, पृष्ठ ६०४, प्रथम संस्करण- २००२ ई०, मूल्य ३००/- रुपये।
प्रस्तुत ग्रन्थ साध्वी डॉ. विनीत प्रज्ञा के शोधप्रबन्ध का प्रकाशित रूप है। इसमें कुल १७ अध्याय हैं जिनसे उत्तराध्ययनसूत्र के सर्वांगीण अध्ययन की झलक मिलती है। इससे पहले भी उत्तराध्ययनसूत्र पर विभिन्न विद्वानों ने काम किए हैं। किन्तु इसका दार्शनिक पक्ष समुचित ढंग से विवेचित नहीं हो पाया था जिसकी पूर्ति इस पुस्तक में हुई है। इसमें अध्ययन की विविधता, व्यापकता तथा गहराई अवलोकित होती है। इस गहन अध्ययन के लिए लेखिका को बहुत-बहुत बधाईयाँ। पुस्तक की बाह्याकृति आकर्षक है तथा छपाई भी सुन्दर है अतः प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं।
- डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा स्याद्वादमञ्जरी, प्रधान सम्पादक- श्री मोतीलाल लाघा जी, लाभार्थी- श्री नगीनभाई पौषधशाला, श्री केसरबाई ज्ञानमन्दिर ट्रस्ट, पाटण (उ०म०), द्वितीय संस्करण, वि०सं० २०५८, मूल्य ८०/- रुपये।
कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य विरचित अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका पर श्रीमल्लिषेण द्वारा की गई टीका का स्वतन्त्र नामकरण स्याद्वादमञ्जरी के रूप में हुआ है। इस विवेचन को भी विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। उसी क्रम में एक विवेचन एवं सम्पादन श्री लाघाजी द्वारा भी जैन विद्या प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है जो महत्त्वपूर्ण है। पुस्तक को देखने से सम्पादक की शैली एवं भावपूर्वक किए गए विवेचन का जो बोध होता है वह सराहनीय है। यदि इसमें संस्कृत विवेचन के साथ
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