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१८० : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
दसवीं एवं ग्यारहवीं शताब्दी दार्शनिक जगत् में एक अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, क्योंकि उस समय के ग्रन्थकारों में प्रमाणों को व्याख्यायित करने की एक होड़-सी लगी थी। उन्हीं ग्रन्थकारों में प्रमाणनिर्णयकार वादिराजसूरि भी एक हैं--- इनका समय दसवीं शताब्दी का प्रारम्भ या मध्यकाल माना जाता है। ये मानमनोहर नामक कृति (वैशेषिक दर्शन) के रचयिता वादिवागीश्वराचार्य और प्रमेयकमलमार्तण्ड के रचयिता प्रभाचन्द्र एवं अकलंकदेव के समकालीन माने जाते हैं। प्रमाणों को व्याख्यायित करने वालों में इष्टसिद्धिकार श्री विमुक्तात्मा का समय (८५०-१०५०) माना जाता है। इन्हें न्यायमकरन्द के रचयिता श्री आनन्दबोध (लगभग ११०० ई०) अपना.गुरु मानकर प्रमाणमाला में कहते है- “एतदेवोक्तं गुरुभिः - नान्यत्र करणात् कार्यं न चेत् तत्रङ्क तदा भवेत्।'
प्रमाणनिर्णय की व्याख्या करना सरल कार्य नहीं है, फिर भी जैन न्याय की विदुषी डॉ० सूरजमुखी जैन ने इसे व्याख्यायित करने का सफल प्रयास किया है। उनका यह विवेचन महत्त्वपूर्ण एवं सराहनीय है। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने और उसे सदुपयोग हेतु निःशुल्क वितरित कर प्रकाशक संस्था बधाई की पात्र बन चुकी है।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह गौतम आगमिक और ऐतिहासिक कथाएँ, लेखक- मुनि विमलकुमार, प्रकाशकआदर्श साहित्य संघ, चुरु (राजस्थान), द्वितीय संस्करण, २००० ई०, आकारडिमाई, पृष्ठ १३१, मूल्य - ४० रुपये।
___ मुनि विमलकुमार जी द्वारा लिखित 'आगमिक तथा ऐतिहासिक कथाएँ' सरल और सुबोध भाषा में जनसाधारण हेतु कहानियों के प्रस्तुतीकरण का सार्थक प्रयास है। कथाएँ प्रमाणित तो हैं ही, कहानी की तरह पठनीय भी हैं। कहानी के माध्यम से सन्देश स्पष्ट पहुँचता है, साथ ही कहानी की सरसता व स्वाभाविक प्रवाह भी बाधित नहीं होती है।
__ जीवन और दर्शन के नग्न तथा नीरस सत्य को कहानी आकर्षक तथा मनोरम बनाती है तथा स्वयं जीवन में भी आस्था का प्रबल संचार करती है।
मुनिजी का प्रयास सार्थक, स्तुत्य तथा अणुव्रत के प्रसार-प्रचार में सही पथ पर बढ़ा हुआ कदम है। इस पुस्तक में कतिपय पठनीय अणुव्रत के उदाहरण निम्नानुसार हैं
(१) भंते! ऐसा उपाय बतायें जिससे मेरे दुष्कर्म नष्ट हों। (पृ० ११४)
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