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११८ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक १. मेघकुमारचौपाई
रचनाकाल वि०सं० १६८६ २. जयसेनलीलावतीरास ,, वि०सं० १६९१ ३. चौबीसीगीत
,, वि०सं० १६९७ ४. चन्दनमलयगिरिचौपाई वि०सं० १७११ ५. कालकाचार्यकथाबालावबोध ,, वि०सं० १७१२ ६. अरहन्नकचौपाई
,, वि०सं० १७१२ ७. रात्रिभोजनचौपाई ,, वि०सं० १७३० ८. चतुर्दशस्वप्न
,, वि०सं० १८वीं शती ९. कल्पसूत्रकल्पचन्द्रिका
सुमतिहंस के शिष्य मतिवर्धन हुए, जिनके द्वारा वि०सं० १७३८ में रचित गौतमपृच्छाटीका नामक कृति मिलती है।१२ मतिवर्धन के शिष्य आनन्दनिधान द्वारा भी रचित कई कृतियां मिलती हैं, जो इस प्रकार हैं :
१. कुलध्वजकुमाररास'३ रचनाकाल वि०सं० १७३४ २. कीर्तिधरसुकोशलचौढालिया'४ - वि०सं० १७३६ ३. देवराजवच्छराजचौपाई१५ ,, वि०सं० १७४८ ४. सास्वतभाषाटीका'६ ,, वि०सं० १८वीं शती
अगरचन्दजी नाहटा के संग्रह में खरतरगच्छ-आद्यपक्षीयशाखा की एक पट्टावली संरक्षित है, जिसके आधार पर उन्होंने इस शाखा के मुनिजनों की गुर्वावली दी है१७ जो इस प्रकार है :
जिनवर्धनसूरि → जिनचन्द्रसूरि → जिनसमुद्रसूरि → जिनदेवरि (आद्यपक्षीयशाखा के आदिपुरुष)→ जिनसिंहसूरि → जिनचन्द्रसूरि → जिनहर्षसूरि
→ जिनलब्धिसूरि → जिनमाणिक्यसूरि → जिनचन्द्रसूरि → जिनोदयसूरि → जिनसंभवसूरि→ जिनधर्मसूरि→ जिनचन्द्रसूरि → जिनकीर्तिसूरि→ जिनबुद्धिवल्लभसूरि → जिनक्षमारत्नसूरि → जिनचन्द्रसूरि।
आद्यपक्षीयशाखा की वर्तमान में उपलब्ध एकमात्र पट्टावली में जिनमाणिक्यसूरि से अन्तिम पट्टधर जिनचन्द्रसूरि तक जितने भी नाम मिलते हैं उन सभी के बारे में अन्यत्र कोई सूचना नहीं मिलती है। चूँकि जिनदेवसूरि से जिनलब्धिसूरि तक के पट्टधर आचार्यों के नाम और क्रम जो इस पट्टावली में हैं, उनका साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से भी समर्थन होता है। अत: इसमें जिनमाणिक्यसूरि से जिनचन्द्रसरि तक जो भी नाम मिलते हैं, उन्हें प्रामाणिक मानने में कोई बाधा दिखायी नहीं देती। इस शाखा
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