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जैन जगत् : १६३ स्वाध्यायी, ध्यानी व अप्रमत्त साधक थे। नवकार महामन्त्र के तृतीय पद पर आसीन होकर भी वे जीवन में निराभिमानी, सरल व सहज बने रहे। दोनों महापुरुषों के तेजस्वी, जीवन से पंजाब संघ व भारतवर्ष का सम्पूर्ण स्थानकवासी समाज गौरवान्वित हुआ है। आचार्य श्री सोहनलालजी महाराज को अजमेर सम्मेलन (सन् १९३५) में भारतवर्ष की सम्पूर्ण स्थानकवासी-परम्पराओं के सभी आचार्यों ने अपना प्रधानाचार्य स्वीकार करके उनके अनुपम श्रुत व शील का अभिनन्दन किया। आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज को सादड़ी सम्मेलन (सन् १९५२) में बाईस सम्प्रदायों के बत्तीस आचार्यों ने अपने पदों का व्यामोह छोड़ कर एक स्वर से संगठन को महत्त्व देते हुए अपना अनुशास्ता स्वीकार किया। वह आचार्यसम्राट् के पद से विभूषित हुए। दोनों सन्त पंजाब प्रान्त के थे। दोनों के व्यक्तित्व व कर्तृत्व से पंजाब गौरवान्वित हुआ। प्रवर्तनी श्री पार्वतीजी महाराज अपने समय की महान् विदुषी व शासन प्रभाविका साध्वीरत्न थीं। सोलह रियासतों के राजा समय-समय पर उनके चरणों में उपस्थित होकर मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। वह साक्षात् दुर्गा, भगवती व सरस्वती स्वरूपा साध्वी थीं। लब्धियां व सिद्धियां उनके समक्ष नतमस्तक थीं। तत्कालीन समाज में फैली कुरीतियों व विकृतियों पर उन्होंने कठोर प्रहार करके समाज को उनसे मुक्त कराया। निर्व्यसनी अहिंसक समाज की संरचना में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने स्त्री शिक्षा, गौ सेवा, स्वधर्मी बन्धुओं के प्रति सहयोग व जीवदया के महान् कार्यों के प्रति समाज को जागृत किया।"
उक्त विचार साध्वी डॉ० अर्चनाजी म० ने प्रधानाचार्य श्रीसोहनलालजी म० के १५४वें जन्मोत्सव पर तथा आचार्यसम्राट श्रीआत्मारामजी महाराज के ४१वें व प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी म० के ६३वें पुण्य स्मरण समारोह पर बोलते हुए व्यक्त किये। इस अवसर पर साध्वी मनीषा जी महाराज ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा - "वे आत्माएं धन्य होती हैं जिनके जीवन के क्रियाकलापों से देश, धर्म, जाति व कुल गौरवान्वित होता है। इस नश्वर व भौतिक संसार में जो आया है एक दिन उसे अवश्य जाना भी होता है पर अपने सत्कर्मों से व्यक्ति अमर हो जाता है। शताब्दियों तक लोग उन्हें भूल नहीं पाते हैं। तीनों महान् आत्माएं श्री सोहनलालजी महाराज, श्री आत्मारामजी महाराज व श्री पार्वतीजी महाराज ने अपने संयमनिष्ठ जीवन से स्वयं का तो उत्थान किया ही, साथ ही जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना करके जैनधर्म के प्रचार व प्रसार में महान् योगदान दिया। जर्मनी के विद्वान् व शोध विद्यार्थी तीनों महापुरुषों के चरणों में जैनागमों-सम्बन्धी जिज्ञासाओं को शान्त करने व आगमों के गम्भीर रहस्यों को प्राप्त करने के लिए उपस्थित होते रहते थे। आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज जैनागमों के प्रथम हिन्दी टीकाकार के रूप में विश्व प्रसिद्ध हैं। समता, धैर्य व अतुल पुरुषार्थ के बल पर ऐतिहासिक कार्यों को इन्होंने अंजाम दिया। श्री अशोककुमार जैन, जीरा के ध्वजारोहण से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। श्री जे०के० जैन की अध्यक्षता में समारोह
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