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गांधी चिन्तन में अहिंसा एवं उसकी प्रासंगिकता : १११
द्वारा मनवाने को आतंकवाद कहता है । अतः आतंकवाद व्यक्ति की वह प्रवृत्ति है, जिसमें वह अपनी मांगें मनवाने के लिए चरम हिंसा का प्रयोग करके व्यक्ति विशेष, समाज या किसी सरकार पर दबाव डाले अर्थात् आतंकवाद का आशय, अपनी मांगे मनवाने के लिए बल प्रयोग से है । परन्तु समाज ने इसमें कुछ अपवाद भी माने हैं(१) सुरक्षा हेतु की गयी हिंसा, (२) शान्ति के नाम पर की गयी हिंसा एवं (३) एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र से युद्ध इत्यादि । आतंकवाद और युद्ध विरोधी लोग आतंकवाद को सामाजिक कलंक या पाप निरोपित कहते हैं।
गांधीजी ने धर्म के संकीर्ण अर्थ को स्वीकार नहीं किया बल्कि उनकी दृष्टि में धर्म शाश्वत और सार्वभौम नैतिक नियमों का संग्रह है। उन्होंने कहा "मेरे मत में धर्म ACT अर्थ है नैतिकता। मैं ऐसे किसी धर्म को नहीं मानता जो नैतिकता का विरोध करता हो या नैतिकता के परे कोई उपदेश देता हो । धर्म तो वास्तव में नैतिकता को व्यवहार में घटित करने की पराकाष्ठा है। १४ अतः नैतिकता धर्म का केन्द्र बिन्दु है। गांधीजी किसी धर्म विशेष को महत्त्व न देकर सभी धर्मों को समान महत्त्व देते थे। उन्होंने कहा कि “विभिन्न धर्म तो, एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग हैं। जब हमारा लक्ष्य एक ही है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम उसकी प्राप्ति के लिए अलग-अलग रास्तों पर चल रहे हैं।" १५ अतः गांधीजी सभी धर्मों के प्रति सम्मान भाव रखते थे।
वर्तमान आतंकवादी युग में धर्म की व्याख्या उसके अनुयायी अपनी सुविधा के अनुसार कर रहे हैं । इस्लामी देशों में विभिन्न प्रकार के जेहादी नारे दिये जा रहे हैं। इनका मानना है कि इस्लाम खतरे में है इसलिए जेहाद करो अर्थात् इस्लाम को बचाने के लिए काफिरों को मारो और अल्लाह के पास स्वर्ग में स्थान सुरक्षित करो। इनका यह भी मानना है कि अन्य धर्मों के कारण हमारा इस्लाम संकट में है इसलिए इसको हिंसा करके बचाओ। गांधीजी राजनीति में धर्म की बात करते थे, जबकि वर्तमान में धर्म का राजनीतिकरण हो गया है। आज एक धर्म की दूसरे से टकराहट पैदा हो गयी है और उसमें हिंसा का प्रवेश हो चुका है। इसमें दोष धर्म का नहीं बल्कि मानव विचारों का है।
ऐसे में गांधी की अहिंसा की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है कि जब धर्म का ही इस्तेमाल हिंसात्मक तरीके से होने लग जाये तो अहिंसा का पाठ कि पढ़ाया जाये। आतंकवाद के दो रूप मुख्यतः देखने को मिलते हैं- (१) जेहादी आतंकवाद एवं (२) आत्मघाती आतंकवाद । पहले में धर्म का इस्तेमाल जेहाद के नाम पर किया जा रहा है तो दूसरे आतंकवाद में आतंकवादी स्वयं अपने प्राणों की चिन्ता किये बिना आतंकी हिंसा फैला रहे हैं। जब व्यक्ति स्वयं मरने एवं मारने पर ही उतारू है तो ऐसी स्थिति में अहिंसा का पाठ किसे पढ़ाया जाये ?
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