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१०२ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
अर्थात वही विद्या महाविद्या है और सभी विद्याओं में उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है। जिस विद्या से बंध और मोक्ष का, जीवों की गति
और आगति का ज्ञान होता है तथा जिससे आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वही विद्या सम्पूर्ण दुःखों को दूर करने वाली है। प्राचीन ज्ञान का नवीन प्रस्तुनिकरण
आधुनिक युग में स्वामी विवेकानन्द ने प्राचीन शिक्षा-पद्धति का नवीन प्रस्तुतिकरण किया। उन्होंने कहा कि शिक्षा मात्र उन सूचनाओं का संग्रह नहीं है जो टूंस-ठूस कर हमारे मस्तिष्क में भर दिये जायें और जो वहाँ निरन्तर जमे हुए रहते हैं, हमें जीवन का निर्माण, मनुष्यता का निर्माण व चरित्र का निर्माण करने वाले विचारों की आवश्यकता है। उन्होंने आगे पुन: कहा कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जो चरित्र को ऊँचा उठाती है, जिससे मन की शक्तियां बढ़ती हैं और जिससे बुद्धि का विकास होता है ताकि व्यक्ति अपने पैरों पर स्वयं खड़ा हो सके। जीवन का सर्वांगीण विकास - उपरोक्त विवेचन से यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा कर दी, ऐसी बात नहीं है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन का समग्र अंग लिया गया हैं अर्थात् मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा का पूर्ण विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है। चतुर्विध पुरुषार्थ मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण विकास की उद्भावना है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारे, दोनों तटबन्ध मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धन्धों आदि के काम आता है, उससे जीवों का कल्याण होता है। लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है और तब वही पानी अनेक गाँवों को जलमग्न कर देता है, अनेक मनुष्य और पशु उसमें बह जाते हैं, भयङ्कर त्राहि-त्राहि मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है, इन दो तटों की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाये तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहाँ पर जगत् और जीवन की उपेक्षा नहीं की गयी, लेकिन संयममय, मर्यादानुकूल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया। हमारे यहाँ पारिवारिक जीवन में इसी धर्म भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को 'धर्मपत्नी' कहा गया जो धर्म भावना को बढ़ाने वाली होती है। वह वासना की मूर्ति नहीं है। आगम में पत्नी के बारे में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है
भारिया धम्मसहाइया, धम्मविइज्जिया। धम्माणु रागरत्ता, समसुहदुक्खसहाइया।।
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