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जैन दर्शन में परमात्मा का स्वरूप एवं स्थान
(शोधप्रबन्धसार)
श्रीमती कल्पना
मनुष्य स्वभाव से एक चिन्तनशील प्राणी है, चिन्तनशील मानव को सदा से यह विकल्प रहा है कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, यह प्रपञ्चात्मक जगत् क्या है, अनुभव से अनवरत रूप से आने वाला प्रतीति गोचर समस्त परिपार्श्व क्या है तथा मानव-जीवन का अन्तिम गन्तव्य क्या है?
भौतिक सुख की उपलब्धि ही परम श्रेय है या इसके अतिरिक्त भी जीवन का कोई साध्य है। भारतीय दर्शन में इन सभी प्रश्नों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया है। भारतीय दर्शन मूलत: आध्यात्मिक है, दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति कैसे हो, इस प्रश्न का उत्तर देने में ही भारतीय दर्शन की चरितार्थता है, चूँकि दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है, इसलिए वेदों से लेकर आधुनिक युग के प्रमुख भारतीय दार्शनिकों ने मानव जीवन का मूल प्रयोजन आत्मज्ञान को मानते हुए आत्मा को ही अपने चिन्तन का प्रमुख विषय माना है। भारतीय दर्शन में आत्मा के सम्बन्ध में विभिन्न अवधारणाएं प्राप्त होती हैं। आत्मा, जीव, परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म आदि अनेक रूपों में विभिन्न दर्शनों तथा उनकी तत्त्वमीमांसीय पृष्ठभूमि में व्याख्यायित हैं।।
आत्मा के शुद्ध, बुद्ध, नित्य स्वरूप को ही परमात्मा कहा गया है। परमात्मा की अवधारणा भारतीय वाङ्मय में मुख्य रूप से दो रूपों में मिलती है- (१) आत्मा के शुद्ध, नित्य, बुद्ध, इन्द्रियातीत, अगोचर, अव्यय एवम् अविनाशी रूप में, (२) ईश्वर या जगत् के सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में।
परमात्मा की प्रथम अवधारणा के सन्दर्भ में विचार करें तो प्राय: सभी भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा की सत्ता को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। वे मूलत: आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, निर्मल और निर्विकार मानते हैं, यह आत्मा निर्विकार ही अविद्या, माया व कर्म से सम्पृक्त हो संसारी अवस्था या बन्धन को प्राप्त होती है। शुद्ध आत्मा तो निर्विकार, निरवयव व मुक्त है। श्रमण-परम्परा के प्रतिनिधि जैन दर्शन में आत्मा को ही केन्द्र में रखकर उसे * शोधच्छात्रा, दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५
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