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नाट्यशास्त्र एवम् अभिनवभारती में शान्त रस
डॉ॰ मधु अग्रवाल
भारतवर्ष में ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से ही नाट्यकला पूर्णतया विकसित अवस्था में विद्यमान रही है। यह बात रामायण, महाभारत एवं पातञ्जल महाभाष्य से प्राप्त साक्ष्यों से स्पष्ट होती है। भरत ने इस नाट्यकला को शास्त्र का सुविकसित एवं वैज्ञानिक रूप प्रदान किया है जो नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है। नाट्यशास्त्र में उपलब्ध साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि भरतों की एक परम्परा विद्यमान रही है और उसी गौरवशाली परम्परा की शास्वत साधना का परिणाम है नाट्यशास्त्र ।
नाट्यशास्त्र भारतीय नाट्यकला का अनुपम ग्रन्थरत्न है। इसे मात्र नाट्यकला का ही नहीं अपितु भारतीय कलाओं का कोश कहा जाता है। इस ग्रन्थ पर विभिन्न टीकायें रची गयीं जिनमें से एकमात्र उपलब्ध टीका अभिनवभारती के नाम से जानी जाती है। इसके रचनाकार अभिनवगुप्त हैं। अभिनवभारती स्वयं टीका ग्रन्थ होते हुए भी अपने प्रकाण्ड पाण्डित्यपूर्ण विवेचन के कारण स्वतन्त्र नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ के समान ही महत्त्वपूर्ण है।
नाट्यशास्त्र एवं अभिनवभारती में रसनिष्पत्ति, रसों की संख्या, उनके नामकरण का आधार आदि बातों का विस्तृत विवेचन है। प्रस्तुत आलेख में विद्वान् लेखिका ने उक्त ग्रन्थों में शान्तरस की अभिनेयता, प्रतिपादन और विश्वशान्ति हेतु उसकी उपादेयता की चर्चा की है।
सम्पादक
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नाट्य में शान्त रस की स्थिति के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है । नाट्यशास्त्र के प्राप्य दो संस्करणों में 'शान्त' का नवम रस के रूप में वर्णन है; किन्तु काशी संस्करण में शान्त के अतिरिक्त आठ रसों का ही विवेचन है। इस शास्त्र के विभिन्न संस्करणों के इस पाठभेद के आधार पर इस शास्त्र में भी शान्त रस की स्थिति आशङ्कायुक्त है।' अभिनवगुप्त ने वैकल्पिक पाठों को प्रस्तुत करके नाट्यशास्त्र में शान्त रस को नवम रस मानकर ९ रसों की स्थिति नाट्य में स्वीकार की है । ३
अपनी मान्यता के समर्थन में प्रमाण प्रस्तुत करते हुए अभिनवगुप्त ने लिखा है कि
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रीडर, संस्कृत-विभाग, रानी भाग्यवती देवी स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, . बिजनौर, उत्तर प्रदेश। पत्र-व्यवहार हेतु पता- १७, आवास विकास, बिजनौर ।
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