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मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की भूमिका : ८३ करता है और सम्यग्दर्शन सम्पन्न पशु भी मनुष्य के समान आचरण करता है।
नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः।
पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वयक्तचेतसः।। सागारधर्मामृत, १/४. जैसे शरीर में दो हाथ, दो पैर, एक मस्तक, एक हृदय, एक पीठ और एक नितम्ब- ये आठ अङ्ग होने पर शरीर पूर्ण माना जाता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन के नि:शङ्कित, नि:काङ्क्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य
और प्रभावना- ये आठ अङ्ग होने पर सम्यग्दर्शन पूर्ण माना जाता है। यदि इनमें से कोई एक भी अङ्ग रहित सम्यग्दर्शन हो तो वह अङ्गहीन सम्यग्दर्शन संसार परम्परा को छेदने में वैसे ही समर्थ नहीं है जैसे न्यूनाक्षरों वाला मन्त्र विष-वेदना को नष्ट करने में समर्थ नहीं होता है।
__यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जब धरसेनाचार्य के पास पुष्पदन्त एवं भूतबलि नामक मुनिद्वय अध्ययनार्थ गये थे तो आचार्यश्री ने उन मुनियों की परीक्षा के लिये न्यूनाक्षरों
और अधिकाक्षरों वाला मन्त्र देकर विद्यादेवियाँ सिद्ध करने के लिये प्रेरित किया था, किन्तु मन्त्राक्षरों में न्यूनाधिकता होने से वे मनिद्वय विद्यादेवियों की सिद्धि करने में सफल नहीं हुये थे। अत: यही बात अङ्गहीन सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में भी कही
____ चाण्डाल जैसे निम्न कुल में पैदा होने पर भी यदि कोई जीव सम्यग्दर्शन से सम्पन्न हो जाता है तो वह आदर का पात्र है, जाति का वहाँ कोई बन्धन नहीं है। इसी प्रकार तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न कुत्ता भी धर्म (सम्यग्दर्शन) के कारण देवगति को प्राप्त हो सकता है। इसीलिये मोक्षमार्ग में भी सम्यग्दर्शन को कर्णधार अर्थात् खेवटिया कहा गया है। जिस प्रकार बीज के अभाव में वृक्ष की कल्पना नहीं की जा सकती है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति
और वृद्धि नहीं हो सकती है और उसका फलरूप निर्वाण तो कदापि नहीं। इसीलिये आचार्य समन्तभद्र को कहना पड़ा कि मोही (मिथ्यात्वी) मुनि से मोक्षमार्ग में स्थित निर्मोही (सम्यग्दृष्टि) गृहस्थ उत्तम है। मोक्षाभिलाषी जीव के लिये तीनों लोकों एवं तीनों कालों में सम्यक्त्व के समान अन्य कोई दूसरा कल्याणकारी नहीं है, क्योंकि यदि एक बार मात्र एक मुहूर्त के लिये मिथ्यादर्शन का नाश होकर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाये तो फिर अथाह सुख के सागर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।
समयसार नाटक में महाकवि बनारसीदास भव्य जीवों को समझाते हुये कहते हैं कि -
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