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मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की भूमिका : ८५ ऋद्धियों से सम्पन्न होता है। सन्तुष्ट होता है। अतिशय शोभा को प्राप्त करता है और स्वर्ग में गया तो वहाँ देव और देवाङ्गनाओं के साथ चिरकाल तक निवास करता है। सम्यग्दृष्टि जीव यदि मनुष्यगति को प्राप्त करता है तो वह वहाँ काल-महाकाल आदि नौ निधियाँ और चक्र-छत्र आदि चौदह रत्नों का स्वामी होता है। उसके चरणों में मुकुटधारी बत्तीस हजार बड़े-बड़े राजा-महाराजा सिर झुकाते हैं और षट्खण्डाधिपति होकर चक्ररत्न का प्रवर्तन करने में समर्थ होता है। और अधिक क्या कहें? तीनों लोकों के जीवों को शरण देने वाले तीर्थङ्कर पद को भी प्राप्त करता है और आत्मस्थ होकर अन्त में मुक्तिवधू का वरण करता है।
इससे स्पष्ट है कि मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की भूमिका अपरिहार्य है। इसलिये आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने भी जीव को सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करने का उपदेश दिया है। वे कहते हैं
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन। तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च।।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, पद्य २१ अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र- इन तीनों में सर्वप्रथम सम्पूर्ण प्रयत्न द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं।
___ मिथ्यादृष्टि के व्रत, तप, संयम आदि सभी बालतप के अन्तर्गत परिगणित होते हैं। इन बालतपों का अङ्कविहीन शून्यों से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं है। किन्तु यदि इन सब शून्यों के पूर्व में सम्यग्दर्शन रूपी अङ्क को प्रतिष्ठित कर दिया जाय तो उसके आगे जिनते भी शून्य होंगे उन सबकी महत्ता दस-दस गुणी बढ़ जायेगी और वे सभी व्रत, तप, संयम आदि सार्थक होकर मुक्ति प्राप्त कराने में सहायक होंगे।
आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि- जैसे सभी भवनों का आधार उसका मूल (नीव) है उसी प्रकार सभी व्रतों का आधार सम्यक्त्व है।
अधिष्ठानं भवेन्मूलं प्रासादानां यथा पुनः। तथा सर्वव्रतानां च मूलं सम्यक्त्वमुच्यते।।
- श्रावकाचार, पद्य ११ अभ्रदेवकृत व्रतोद्योतन श्रावकाचार में भी सम्यग्दर्शन के बिना धारण किये गये व्रतों तथा समितियों एवं गुप्तियों के पालन रूप तेरह प्रकार के चारित्र को निरर्थक कहा
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