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समराइच्चकहा में व्यवसायों का सामाजिक आधार
राघवेन्द्र प्रताप सिंह
समराइच्चकहा आचार्य हरिभद्रसूरि की रचना है। इनका काल आठवीं शताब्दी सुनिश्चित है। समराइच्चकहा तयुगीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सूचनाओं के लिए मूलस्रोत के रूप में ग्रहणीय है।
__अर्थ व्यक्तिगत जीवन की धुरी तथा समाज के विकास के प्रमुख आधारों में से एक है। पुरुषार्थ चतुष्टय के भारतीय आदर्श में भी अर्थ को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यद्यपि निवृत्तिपरक विचारधारा में मोक्ष को जीवन का परम उद्देश्य माना गया है; किन्तु त्रिवर्ग के अभाव में मोक्षरूपी चिरन्तन सुख की अनुभूति असम्भव है। धर्म एवं काम की उपलब्धि भी अर्थ के माध्यम से ही सम्भव है। समराइच्चकहा में त्रिवर्ग का सेवन करना भी लोकधर्म बताया गया है।
प्राचीन जैन आगमों में असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प को षट्कर्म बताया गया है। वस्तुत: समराइच्चकहा भी इस विषय पर प्राचीन भारतीय वर्णव्यवस्था सम्बन्धी उसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें बताया गया है कि ब्राह्मण लेखनी के बल से, क्षत्रिय युद्धविद्या से, वैश्य कृषि एवं वाणिज्य से तथा अन्य लोग जिनमें शूद्रादि को लिया जाता है, शिल्प एवम् अन्य लघु महत्त्व के कार्यों से अपनी आजीविका कमाते हैं।
प्राचीन भारतीय सामाजिक संगठन के सन्दर्भ में समराइच्चकहा में आर्य एवम् अनार्य जातियों का उल्लेख है। धार्मिक दृष्टि से उच्चतर आचार-विचार वाले लोगों को आर्य एवं धर्म-कर्म के व्यवहार से रहित लोगों को अनार्य की संज्ञा दी गयी है। आर्य जातियों के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चार वर्ण माने गये है। जैनसूत्रों में बंभण, खत्तिय, वइस्स और सुद्द नामक चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। शूद्र वर्ण में चाण्डाल, डोम्बलिक. रजक, चर्मकार, शाकुनिक, मछुवा आदि कई शाखाओं का नामोल्लेख है।
शोधछात्र, इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. यह आलेख डॉ० झिनकू यादव की पुस्तक समराइच्चकहा : एक सांस्कृतिक अध्ययन से प्रेरणा प्राप्त कर लिखा गया है।
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