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मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की भूमिका : ८१
आचार्यों ने सम्यग्दर्शन को आधार बनाकर दो दृष्टियों से विचार किया हैप्रथम यह कि जो जीव सम्यग्दर्शन से रहित हैं उन्हें अनन्तकाल तक क्या प्राप्त नहीं होता है और द्वितीय यह कि जो सम्यग्दर्शन से युक्त होते हैं उन्हें वर्तमान भव और आगामी भवों में क्या-क्या प्राप्त होता है। अर्थात् एक निषेधपरक दृष्टि और दूसरी विधिपरक दृष्टि। उपर्युक्त गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि निषेधपरक है। उन्होंने एक ही गाथा में सम्पूर्ण जिनवाणी का सार निचोड़कर कह दिया कि- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य के निधान स्वरूप मोक्ष को सम्यग्दर्शन से रहित जीव त्रिकाल में भी प्राप्त नहीं कर सकता है। दूसरी ओर जो जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है उसकी कौन-कौन श्रेष्ठ उपलब्धियाँ होती हैं और वह कौन-कौन दुर्गतियों से बच जाता है, इसकी शास्त्रों में सार रूप में चर्चा की गयी है।
जिस सम्यग्दर्शन की इतनी महिमा है उसका सर्वप्रथम यहाँ लक्षण प्रस्तुत किया जा रहा है।
महान् तार्किक आचार्य समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन का लक्षण करते हुये कहा है कि- तीन मूढ़ता और आठ मदों से रहित तथा आठ अङ्गों सहित सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यहाँ सच्चा देव वही है जो वीतरागी हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हो। ऐसे आप्त के मुख से निकली वाणी सच्चा शास्त्र है और तदनुकूल आचरण करने वाला महान् व्यक्ति सच्चा गुरु है। इन तीनों पर श्रद्धान करना, साथ ही लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता तथा ज्ञानादि मदों से रहित होना सम्यग्दर्शन है।
विभिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न अनुयोगों की दृष्टि से सम्यग्दर्शन के पृथक्-पृथक् लक्षण प्रस्तुत किये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने भूतार्थ से अभिज्ञात जीवादि सात तत्त्वों एवं पुण्य-पाप-- इस प्रकार नौ पदार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने आत्मविनिश्चिति अर्थात् आत्मप्रतीति को सम्यग्दर्शन कहा है। इसी बात को महाकवि दौलतराम ने 'परद्रव्यन तैं भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है' इन शब्दों में दुहराया है। अन्यत्र स्व और पर के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रथमानुयोग और चरणानुयोग में सम्यग्दर्शन का जो स्वरूप बतलाया गया है वह प्रायः एक सा है। इन दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। क्योंकि इन दोनों में सच्चे देव, शास्त्र और गुरु पर श्रद्धान करना तथा भय, आशा, स्नेह और लोभ के वशीभूत होकर कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र पर श्रद्धान न करना सम्यग्दर्शन कहा गया है।
द्रव्यानुयोग की अपेक्षा तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है, जिसका प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द एवं उमास्वामी आदि ने किया है। चरणानुयोग और
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