________________
नाट्यशास्त्र एवम् अभिनवभारती में शान्त रस
:
७३
शान्त रस के अभिनय के विपक्ष में धनिक३३ एवं शारदातनय३४ का यह कथन है कि अभिनयात्मक नाटक आदि में 'शम' का अभिनय किया जाना सम्भव नहीं है, क्योंकि ‘शम' की अवस्था में समस्त व्यापारों एवं चेष्टाओं का विलय हो जाता है।
अभिनवगुप्त ने शान्त रस के समर्थकों के आधार पर उसका निरूपण एवं शान्त रस के विरोधी आचार्यों के इस प्रकार मतों एवम् आशङ्काओं को प्रस्तुत करके उनको अस्वीकारते हुए नाट्य में शान्त रस को अभिनेय सिद्ध किया है।३५ ध्वन्यालोक पर अपनी लोचन टीका में इन्होंने भरत के 'क्वचित् शमः' इत्यादि कथन को शान्त रस के प्रमाण रूप में उद्धृत किया है।३६ इनके मत में धर्मादि चार पुरुषार्थों में मोक्ष भी है। नाट्य लोकवृत्तानुचरित है
और मोक्षरूप पुरुषार्थ का साधन इस लोक में अनेक महापुरुष करते हैं। अत: शान्त रस का भी अभिनय सम्भव है।३७
शारदातनय, धनिक आदि द्वारा चेष्टाओं के विलय के कारण जो शान्त रस को अनभिधेय कहा गया है- इस तर्क का खण्डन करते हुए अभिनवगुप्त का कथन है कि चेष्टाओं का विलय तो पराकाष्ठा है और पर्यन्त भूमि में केवल शान्त रस ही व्यापार-शून्य और अनभिनेय नहीं है अपितु रति और शोकादि का भी पर्यन्त दशा में अनभिनेयत्व ही पराकाष्ठा प्रदर्शन हेतु उचित है। इस स्थिति में जब शृङ्गार, करुण आदि को रस मानते हैं तो शान्त को भी मानना युक्तिसङ्गत है।३८ पण्डितराज जगन्नाथ ने शान्त रस का विरोध करने वाले आचार्यों के तर्कों को पूर्वपक्षी के रूप में प्रस्तुत करके इनका युक्तिपूर्वक खण्डन करते हुए नाट्य में शान्त रस का होना औचित्यपूर्ण कहा है।३९ भूदेव ने भी इनका समर्थन किया है।४० शान्त रस के अभिनय में पूर्ण शमन के प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है, अपितु स्वभावगत शान्ति लौकिक सुख-दुःख के प्रति विराग के प्रदर्शन से ही शान्त रस अभिनेय है। अभिनवगुप्त का समर्थन करते हुए डॉ० आनन्दप्रकाश दीक्षित का विचार है कि पात्र के अन्तःसङ्घर्ष को प्रकट करते हुए सत्यप्राप्ति अथवा आत्मज्ञानोपलब्धि के लिये किये गये प्रयत्नों का प्रदर्शन ही शान्त रस को उपस्थित कर सकता है।४१ हर्ष के नागानन्द नाटक में भी तपोवन आदि के प्रसङ्ग में शान्त रस प्राप्य है।
नाट्यशास्त्र की प्रति में प्राप्य शान्त रस के स्वरूप के आधार पर शान्त रस का वर्णन इस प्रकार है
'शम' स्थायी भाव वाला और मोक्ष में प्रवृत्त करने वाला शान्त रस होता है।४२
शान्त रस के स्थायी भाव के सम्बन्ध में भी दो पक्ष हैं। भरत का समर्थन करते हुए अभिनव,४३ रामचन्द्र-गुणचन्द्र,४४ विश्वनाथ,४५ विद्यानाथ,४६ हेमचन्द्र४७ आदि शम को ही स्थायी भाव मानते हैं, जबकि मम्मट,४८ पण्डितराज जगन्नाथ४९ एवं भूदेव५० शान्त रस का स्थायी भाव 'निर्वेद' मानने के पक्षधर हैं। यद्यपि 'शम' और 'निवेद' एक ही प्रकार की चित्तवृत्ति के द्योतक हैं। फिर भी 'निर्वेद' की उत्पत्ति दारिद्र्य से भी सम्भव होने एवं इसमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org