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१४ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक डॉ० जैन की नयी स्थापना प्रथम चार अध्यायों में केन्द्रित है, अतः प्रस्तुत लेख में इन्हीं अध्यायों पर विशेष विचार किया जायेगा। इन चार अध्यायों में डॉ० सागरमल जैन ने आध्यात्मिक विकास की विभिन्न स्थितियों को चित्रित करने वाले गुणस्थान-सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास का शोधपरक विश्लेषण किया है।
गुणस्थान-सिद्धान्त आज जैनधर्म में अत्यन्त प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता का विवेचन गुणस्थानों के आधार पर किया जाता है। किस जीव के किस गुणस्थान में कितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध, उदय आदि होता है इसे प्रतिपादित करने वाले ग्रन्थों का पृथक् से निर्माण भी हुआ है। षट्खण्डागम, कर्मप्रकृति, कर्म-ग्रन्थ, पञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यही नहीं गुणस्थानों के आधार पर लघुदण्डक, महादण्डक आदि स्तोत्र ग्रन्थों का भी निर्माण हुआ है। जैन कर्म-सिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन गुणस्थान-सिद्धान्त को आधार बनाकर चलता है। जैनधर्म के ऐसे प्रमख सिद्धान्त के उद्भव एवं विकास की चर्चा करना उनके विशुद्ध शैक्षिक एवं गवेषणापूर्ण अध्ययन की रुचि एवं उसके प्रस्तुतीकरण के प्रति उत्कट साहस को अभिव्यक्त करता है। . जैनधर्म में आत्मा के आध्यात्मिक-विकास की स्थितियों को गुणस्थान कहा गया है। गुणस्थानों की संख्या १४ मान्य है। वे १४ गुणस्थान इस प्रकार हैं
१. मिथ्यात्व, २. सास्वादन, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र), ४. सम्यक्त्व, ५. देशविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. निवृत्तिबादर, ९. अनिवृत्तिबादर, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. संयोगीकेवली और १४. अयोगी केवली। . डॉ० सागरमल जैन ने अपनी शोध-कृति में यह प्रतिपादित किया है कि जैनधर्म में इन १४ गुणस्थानों की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुई है। ____ डॉ० जैन का मन्तव्य है कि गुणस्थान-सिद्धान्त की सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पाँचवीं शती ईस्वी के मध्य निर्मित हुई है। इस मन्तव्य का आधार भी जैन-ग्रन्थ ही हैं, जिनमें गुणस्थान-सिद्धान्त का क्रमिक विकास दिखायी पड़ता है। डॉ० जैन ने अपना यह मन्तव्य दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय के मान्य ग्रन्थों एवं तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर निर्धारित किया है। यही नहीं उन्होंने गुणस्थान-सिद्धान्त के उल्लेख-अनुल्लेख के आधार पर अनेक जैन-ग्रन्थों का पौर्वापर्य भी सिद्ध किया है। डॉ० सागरमल जैन का यह मौलिक विश्लेषण है कि गुणस्थान-सिद्धान्त एवं १४ गुणस्थानों की अवधारणा शनैः शनैः विकसित हुई है। डॉ० जैन ने अपने मन्तव्य हेतु निम्नांकित प्रमुख तर्क दिये हैं१. आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती
आदि प्राचीन स्तर के आगमों में गुणस्थान की अवधारणा का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम समवायाङ्ग में जीवस्थान के नाम से १४
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