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प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन : ५७ में सारावली प्रकीर्णक के लेखन का फल बताया गया है। इसका एकमात्र प्रकाशित संस्करण महावीर जैन विद्यालय के पइण्णयसुत्ताइं में है ।
३२- ज्योतिषकरण्डक - इस प्रकीर्णक के वृत्तिकार मलयगिरि की वृत्ति के अन्तःसाक्ष्य से मुनि पुण्यविजय जी ने निष्कर्ष निकाला है कि यह पादलिप्ताचार्य की रचना है। इसमें ४०५ गाथाएँ हैं। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी २३ अधिकार हैं, जो निम्न हैं
(१) काल प्रमाण, (२) मान अधिकार, (३) अधिकमास निष्पत्ति, (४) अवमरात्र, (५-६) पर्व- तिथि समाप्ति, (७) नक्षत्र परिमाण, (८) चन्द्र-सूर्य परिमाण, (९) नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य गति, (१०) नक्षत्र - योग, (११) मण्डलविभाग, (१२) अयन, (१३) आवृत्ति, (१४) मण्डल मुहूर्तगति, (१५) ऋतुपरिमाण, (१६) विषुक्त प्राभृत, (१७) व्यतिपातप्राभृत, (१८) ताप क्षेत्र, (१९) दिवस - वृद्धि हानि, (२०) अमावस्या, (२१) पूर्णिमा- प्राभृत, (२२) प्रणष्टपर्व एवं (२३) पौरुषी परिमाण। यह ग्रन्थ जैनधर्म प्रसारक सभा एवं ऋषभदेव केसरीमल, रतलाम से मूल एवं संस्कृत वृत्ति के साथ प्रकाशित है।
३३ - तित्थोगाली- प्रस्तुत प्रकीर्णक का उल्लेख सर्वप्रथम व्यवहारभाष्य (छठी शताब्दी) में प्राप्त होता है। इसकी किसी प्रति में १२३३ और किसी में १२६१ गाथाएँ प्राप्त होती हैं। इसमें वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर तक के विवरण के साथ ही भरत, ऐरावत आदि दस क्षेत्रों में एक साथ उत्पन्न होने वाले दस-दस तीर्थङ्करों का विवेचन किया गया है। इसमें उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल और उसके छः-छः आरों का विस्तृत निरूपण किया गया है। अवसर्पिणी काल में प्रत्येक आरे में मनुष्यों की आयु, शरीर की शक्ति, ऊँचाई, बुद्धि, शौर्य आदि का क्रमश: हास बतलाया गया है। ग्रन्थ में चौबीस तीर्थङ्करों, बलदेव, वासुदेव आदि शलाकापुरुषों के पूर्वभवों
नाम, उनके माता-पिता, आचार्य, नगर आदि का वर्णन है । ग्रन्थानुसार जिस रात्रि में तीर्थङ्कर महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए, उसी रात्रि में पालक राजा का राज्याभिषेक हुआ। इसमें पालक, मरुत, पुष्पमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, नभःसेन, गर्दभ एवं दुष्टबुद्धि राजा के जन्म एवं उन सभी के राज्यों का वर्णन है, जो इतिहास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। इसमें जैन कला, खगोल, भूगोल का भी वर्णन है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि श्वेताम्बर - परम्परा में यही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें आगम ज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गयी है । इसमें तीर्थङ्कर महावीर से लेकर भद्रबाहु स्वामी तथा स्थूलभद्र तक की पट्ट- परम्परा का उल्लेख किया गया है। अन्त में बारह आरों, विविध धर्मोपदेश और सिद्धों का स्वरूप विस्तृत रूप से निरूपित है। प्रस्तुत प्रकीर्णक महावीर जैन विद्यालय से मूल एवं कल्याणविजयगणि, जालौर से हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित है।
३४- अङ्गविद्या— भारतीय वाङ्मय में यह अपने ही तरह का ग्रन्थ है। इसमें कुल ९००० ग्र० एवं ६० अध्ययन हैं। इसमें मनुष्य की शारीरिक क्रिया व चेष्टा के आधार
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