________________
५८ :
श्रमण / जनवरी - जून २००२ संयुक्तांक
पर फलादेश दिये गये हैं। यह मानस व अङ्गशास्त्र निमित्त की अतिदीर्घकाय रचना है। इसके कर्ता अज्ञात हैं। इस पर हरिभद्र की वृत्ति है । इसका एकमात्र प्रकाशित संस्करण प्राकृत ग्रन्थ परिषद् का है। प्रो० वासुदेवशरण अग्रवाल ने ( यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ) उसकी भूमिका में इस पर एक विस्तृत और महत्त्वपूर्ण लेख है और जो अङ्गविद्या के सभी पक्षों का गम्भीर विश्लेषण करता है।
३५- अजीवकल्प*- यद्यपि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पइण्णयसुत्ताई की प्रस्तावना में २२ प्रकीर्णकों में इसका नाम है, परन्तु यह मुद्रित नहीं हैं। अन्य कोई दूसरा संस्करण भी प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि जैसलमेर, पाटण आदि भण्डारों में इसकी प्रतियाँ हैं। इसका वर्ण्यविषय साधु-समाचारी (एषणा समिति) है।
३६ - तिथिप्रकीर्णक - जैन ग्रन्थावली में इसका पूना में उपलब्ध होना बतलाया गया है, पर कहीं भी इसकी खोज नहीं की जा सकी है।
-
३७ - सिद्धप्राभृत- वृत्ति सहित इसकी मूल प्रतियाँ खम्भात व जैसलमेर के भण्डारों प्राप्य हैं। इसका संस्करण- आत्मानन्द सभा, भावनगर से भी प्रकाशित है। इसमें १२० गाथाएँ हैं। इसमें शीर्षकानुसार ही सिद्धों का वर्णन किया गया है।
३८ - अङ्गचूलिका— इसमें ८०० ग्रन्थाङ्क (श्लोक) हैं। यह यशोभद्र की रचना है। इसका उल्लेख ठाणाङ्ग, व्यवहार, नन्दीसूत्र व पाक्षिकसूत्र में प्राप्त होता है, पर यह अभी तक अमुद्रित है। इसकी प्रतियां कई ग्रन्थ भण्डारों में भी उपलब्ध हैं। इसमें साधु द्वारा आगम स्वाध्याय विधि-नियम और उसकी विषयवस्तु का वर्णन है । उपाध्याय यशोविजय जी आदि ने इसके आधार पर सज्झायों की रचना की है। १३
३९- जीवविभक्ति — इसमें २५ गाथाएँ हैं। यह भी अभी अप्रकाशित है। इसके कर्ता जिनचन्द्रसूरि हैं। इसमें शीर्षकानुसार थोकड़े दिये गये हैं।
४०- पिण्डविशुद्धि- प्रस्तुत प्रकीर्णक आचार्य जिनवल्लभ की कृति है। इसमें १०३ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में साधु आहार एवं समाचारी नियम का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस पर यशोदेव, उदयसिंह, चन्द्रसूरि एवं कनककुशल की वृत्ति है। इसके संस्करण-विजयदान ग्रन्थमाला, सूरत से संस्कृत, जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार; मुम्बई से गुजराती एवं मनमोहन यशमाला, मुम्बई से संस्कृत अनुवाद के साथ प्रकाशित हैं।
४१ - बङ्गचूलिका- इसमें १०९ गाथाएँ हैं। यह यशोभद्र की रचना है। इसका एकमात्र संस्करण के०एम० मडयाता, फलौदी से प्रकाशित है। जौहरीमल पारख के इसका मुद्रित पाठ सन्तोषजनक नहीं है । १४
अनुसार
विषयवस्तु के आधार पर इसका नाम आजीवकल्प होना चाहिये । सम्पादक.
*.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org