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पार्श्वनाथ के सिद्धान्त : दिगम्बर- श्वेताम्बर - दृष्टि
प्रो० सुदर्शनलाल जैन*
तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के जीवन तथा उनके सिद्धान्तों के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में प्राचीन उल्लेख बहुत कम मिलते हैं। जैन आगमों एवं पुराणों के अनुसार जैनधर्म के तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी के राजा अश्वसेन की रानी वर्मला (वामा) देवी की कुक्षि से हुआ था। इन्होंने तीस वर्ष की आयु में ही गृहत्याग करके सम्मेद शिखर पर तपस्या की और केवलज्ञान प्राप्त किया। केवलज्ञान प्राप्त करके सत्तर वर्ष तक श्रमण धर्म का उपदेश दिया। पश्चात् ई० पूर्व ७७७ (चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर - निर्वाण ई० पूर्व ५२७ से २५० वर्ष पूर्व) में निर्वाण प्राप्त किया। इनकी ऐतिहासिकता निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती है। इनके विवाह के सम्बन्ध में श्वेताम्बरों की मान्यता है कि इनका विवाह हुआ जबकि दिगम्बरों की स्पष्ट धारणा है कि तीर्थङ्कर वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ने कुमारावस्था (अविवाहितावस्था) में ही दीक्षा ली थी। २ इनके कुलादि के सम्बन्ध में दिगम्बर इन्हें उग्रवंशीय (उरग या नागवंशीय) तथा श्वेताम्बर इक्ष्वाकुवंशीय स्वीकार करते हैं | ३ दिगम्बरों के तिलोयपण्णत्ति में तथा श्वेताम्बरों के आवश्यकनियुक्ति में इन्हें काश्यपगोत्रीय कहा गया है । ४
आधार - ग्रन्थ- पार्श्वनाथ की दार्शनिक एवं आचार-सम्बन्धी मान्यताओं का प्रतिपादक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगम-ग्रन्थों में उनके जीवन के सम्बन्ध में तथा उनके आचार एवं दार्शनिक सिद्धान्तों के जो उल्लेख मिलते हैं वे अल्प ही हैं, तथापि उनके आधार पर परवर्ती काल में विशेषकर ई० सन् ८वीं शताब्दी के बाद प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषा में रचे गये चरितकाव्य ग्रन्थों में पार्श्वनाथ के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी दी गयी है। पार्श्वनाथ से सम्बन्धित ग्रन्थों का विभाजन निम्न दृष्टि से किया जा सकता है
(क) दिगम्बर ग्रन्थ' - इसके अन्तर्गत मूलाचार, तिलोयपण्णत्ति एवं भगवती - आराधना ये तीन प्राचीन प्रमुख ग्रन्थ हैं। परवर्ती गुणभद्र-रचित उत्तरपुराण भी पार्श्वनाथ-विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । चरितकाव्यों में निम्न ग्यारह काव्यों का प्रमुख रूप से परिगणन किया जा सकता है
प्रोफेसर, संस्कृत-विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी.
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