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पार्श्वनाथ के सिद्धान्त : दिगम्बर- श्वेताम्बर - दृष्टि
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इसी ग्रन्थ में पाठभेद (गतिव्याकरण) के अनुसार निम्न धर्मों का उल्लेख मिलता हैचातुर्याम धर्म, आठ प्रकार का कर्म, कर्मविपाक से नरकादि गतियों में गमन, प्राणातिपात से परिग्रहपर्यन्त पापकर्मों की गणना, पापकर्मों वाला व्यक्ति कभी भी न तो दुःखों से मुक्त हो सकता है और न मोक्ष प्राप्त कर सकता है, कर्मद्वार को रोकने से तथा चातुर्याम धर्म का पालन करने से शाश्वत सुख प्राप्त होता है, जीव स्वकृत कर्मफलों का भोक्ता है, परकृत कर्मफलों का भोक्ता नहीं है, जीव ऊर्ध्वगामी और पुद्गल अधोगामी स्वभाव वाला है, पापकर्मों से युक्त जीव अपने परिणामों (मनोभावों) से गति करता है और वह पुद्गल की गति में भी कारण होता है। जीव और पुद्गल दोनों ही गतिशील हैं। गति दो प्रकार की है— प्रयोगगति (पर- प्रेरित) और विस्रसागति (स्वत:)। इस तरह ऋषिभाषित में भगवान् पार्श्व के जिन सिद्धान्तों को बतलाया गया हैं, उनमें से चातुर्याम को छोड़कर शेष सभी सिद्धान्त महावीर के धर्म में भी मान्य हैं।
८. मूलाचार २० - दिगम्बराचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार में आया है कि महावीर के पूर्व के तीर्थङ्करों ने सामयिक संयम का उपदेश दिया था तथा अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण को आवश्यक बतलाया था; परन्तु महावीर ने सामायिक संयम (धर्म) के साथ छेदोपस्थापना संयम की व्यवस्था दी और प्रतिदिन ( अपराध हो चाहे न हो) प्रतिक्रमण करने का विधान किया। इस संशोधन का कारण मूलाचार में उत्तराध्ययनसूत्र की तरह ही बतलाया गया है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव के काल के मनुष्य दुर्विशोध्य थे अर्थात् सरल तथा जड़ होने के कारण ये बार-बार समझाने पर भी ठीक तरह से नहीं समझ पाते थे । द्वितीय से लेकर तेईसवें तीर्थङ्कर के काल के मनुष्य सुविशोध्य (दृढ़बुद्धि प्रेक्षापूर्वचारी ) थे अर्थात् सरल और प्रज्ञावाले थे जिससे उन्हें समझाना कठिन नहीं था, परन्तु महावीर के काल के मनुष्य दुरनुपाल्य थे अर्थात् जड़ थे तथा वक्रबुद्धि वाले थे जिससे उन्हें समझाना कठिन था। इस तरह यहाँ तीर्थङ्करकालीन मनुष्यों के स्वभाव का तो चित्रण है, परन्तु चातुर्याम पञ्चयाम का तथा सचल-अचल धर्म की चर्चा नहीं है ।
९. तिलोयपण्णत्ति २१— इसके चतुर्थ महाधिकार में पार्श्व के जीवनवृत्त - सम्बन्धी सूचनाएँ मिलती हैं। यहाँ पार्श्वनाथ को उरगवंशी (नागवंशी) तथा कुमारकाल (अविवाहितावस्था) में दीक्षा लेने वाला बतलाया है।
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१०. तत्त्वार्थवार्तिक २२. दिगम्बराचार्य अकलङ्कदेव ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में निर्देश आदि का विधान करते हुए चारित्र के चार भेद भी बतलाए हैं- 'यमों के भेद से चारित्र के चार भेद हैं'। षट्खण्डागम में भी 'पञ्चजम' का प्रयोग इसी अर्थ में आया है। २३
समीक्षा
इस तरह उभय जैन - परम्पराओं में पार्श्व अथवा पार्श्वापत्यों के सम्बन्ध में जो उल्लेख मिलते हैं उनमें निम्न बिन्दु विचारणीय हैं
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