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२८ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक के उल्लेखों को देखकर डॉ० सागरमल जी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पार्श्व की परम्परा में ये सब बातें प्रचलित थीं, जिन्हें महावीर ने दूर किया था।१२
(ग) संयम और तप के फल के सम्बन्ध में महावीर के श्रमण प्रश्न करते हैं और पार्थापत्य संयम का फल अनास्रव तथा तप का फल निर्जरा बतलाते हैं। यहीं पर एक अन्य प्रश्न के उत्तर में पार्थापत्य विभिन्न मतवादों के द्वारा उत्तर देते हैं। जैसे- प्रश्न-जीव देवलोक में किस कारण से उत्पन्न होते हैं? उत्तर--- कालीययुगानुसार प्राथमिक तप से, मोहिल स्थविर के अनुसार प्राथमिक संयम से, आनन्दरक्षित के अनुसार कार्मिकता से (सराग संयम और तप से) तथा काश्यप स्थविर के अनुसार सांगिकता (आसक्ति) से देवलोक में जीव उत्पन्न होते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) में महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण वाला धर्म कहा गया है। १३
४. आवश्यकनियुक्ति १४..-- इसमें महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमणवाला तथा छेदोपस्थापना चारित्रवाला बतलाया गया है।
५. बृहत्कल्पसूत्रभाष्य'५- इसमें दस प्रकार के कल्पों की चर्चा करते हए कहा है कि महावीर ने दस कल्पों की व्यवस्था दी थी। दस कल्प हैं- १. अचेलता, २. उच्छिष्टत्याग, ३. शय्यातर (आवास दाता), ४. पिण्डत्याग, ५. कृतिकर्म, ६. महाव्रत (चतुर्याम या पञ्चयाम), ७. पुरुषज्येष्ठता, ८. प्रतिक्रमण, ९. मासकल्प और १०. वर्षावास (पर्युषणा)। इनमें से चार (३, ५, ६, ७) कल्प अवस्थित हैं और शेष छ: अनवस्थित (अर्थात् सभी तीर्थङ्करों के काल में नहीं होते हैं)। पार्श्व के समय चार कल्पों की व्यवस्था थी, जबकि महावीर के समय सभी १० कल्पों की अनिवार्यता की गयी।
इसके अतिरिक्त प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करों के धर्म को अचेलधर्म (तीर्थङ्कर असंतचेल तथा अन्य संताचेल) तथा मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के धर्म को अचेल अथवा सचेल दोनों कहा है।१६
६. राजप्रश्नीय'७- इसमें पार्थापत्यीय केशीमुनि द्वारा श्वेताम्बिका के राजा प्रदेशी को उपदेश देने का उल्लेख है।
७. ऋषिभाषित१८- डॉ० सागरमल जैन का कथन है कि ऋषिभाषित में पार्श्व के उपदेशों के प्राचीनतम सन्दर्भ मिलते हैं।१९ इस ग्रन्थ में पार्श्व के जिन उपदेशों का उल्लेख है, वे हैं- चातुर्याम, अचित्तभोजन, मोक्ष, लोक, जीव-पुद्गल की गति, कर्म, कर्म-फल-विपाक तथा कर्मफलविपाक से प्राप्त विविध गतियों में संक्रमण। जीव स्वभावत: ऊर्ध्वगामी और पुद्गल अधोगामी हैं। जीव कर्मप्रधान हैं और पुद्गल परिणामप्रधान। जीव में गति कर्मफलविपाक के कारण होती है और पुद्गल में गति परिणामविपाक (स्वाभाविक परिवर्तन) के कारण। जीव सुख-दुःख रूप वेदना का अनुभव करता है। प्राणातिपात-विरमण, कषायविरमण तथा मिथ्यादर्शन रूप शल्य-विरमण से ही जीव को शाश्वत सुख (मोक्ष) प्राप्त हो सकता है। मुक्त होने के बाद पुन: संसार में परिभ्रमण नहीं होता है।
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