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४२ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक होती रही। दो स्वरों के बीच में संस्कृत के त् और य का क्रमश: द और ध् हो जाना इस भाषा की विशेषता है। दो स्वरों के बीच में स्थित द् और ध् वैसे ही रहते हैं। उदाहरणार्थ
गच्छति = गच्छदि, यथा = जधा, जलदः = जलदो, क्रोधः = क्रोधो इत्यादि। (र) महाराष्ट्री
यह काव्य की पद्यात्मक भाषा है। काव्य के पद्यों में इसी का प्रयोग होता था। हाल रचित गाथासप्तशती और प्रवरसेन रचित सेतुबन्ध या रावणवध जैसे उत्कृष्ट कोटि के काव्य इसी भाषा में रचे गये। दो स्वरों के बीच के अल्पप्राण स्पर्श वर्ण का लोप और महाप्राण का हो जाना महाराष्ट्री की विशेषता है। उदाहरणार्थ
गच्छति = गच्छइ, यथा = जहा, जलद = जलओ, क्रोध = कोहो।
डॉ० मनमोहन घोष का विचार है कि महाराष्ट्री, महाराष्ट्र की भाषा नहीं अपितु शौरसेनी के विकास का उत्तरकालीन रूप है। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी भी इस आधार पर इसे शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंश के मध्य की अवस्था मानते हैं। १४ (ल) मागधी
__ यह मगध देश की भाषा थी। नाटकों के निम्न वर्ग के पात्र इसी भाषा का प्रयोग करते थे। इसके मुख्य लक्षण ये हैं
(क) संस्कृत उष्म वर्गों के स्थान पर श् का प्रयोग। (ख) र के स्थान पर ल का प्रयोग। सप्त = शत। राजा = लाजा।
(ग) अन्य प्राकृतों में य् के स्थान पर ज् का प्रयोग होता है। इसमें य् ही रहता है। प्राकृत के शब्द जिनमें ज् और ज्ज का प्रयोग होता है इसमें य् और य्य रूप में ही प्रयुक्त होते हैं। जैसे- जानाति = याणादि, अदत्य = अय्य।
(घ) ण्ण के स्थान पर ञ का प्रयोग। यथा पुण्य = पुञा
(ङ) अकारान्त संज्ञा के प्रथम विभक्ति के एकवचन में ओ के स्थान पर ए का रूप यथा- देवो = देवे।
मागधीप्राकृत का अभिलेखों एवं नाटकों के अतिरिक्त कोई साहित्यिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है।
आजकल प्रत्येक प्राकृत के एक अपभ्रंश रूप की कल्पना की गयी है; किन्तु व्याकरण के प्राचीन ग्रन्थों में इस प्रकार का विभाग दिखायी नहीं देता। हाँ, रुद्रट ने अपने काव्यालङ्कार में देश भेद से अपभ्रंश के अनेक भेदों की ओर निर्देश किया है।
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