Book Title: Sramana 2002 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 36
________________ ३१ पार्श्वनाथ के सिद्धान्त : दिगम्बर श्वेताम्बर - दृष्टि : ! थे। वास्तव में तो सभी पञ्चयाम धर्म का ही उपदेश करते हैं। ' २५ यहाँ पञ्चयाम का तात्पर्य पांच महाव्रतों से है, परन्तु इससे तथा अन्य उभय परम्परागत विवेचनों से स्पष्ट है कि पार्श्व और महावीर के उपदेशों में परमार्थतः मतभेद नहीं है; शिष्य-बुद्धि की अपेक्षा संक्षिप्त अथवा विस्तृत कथनमात्र है। इसीलिए आचाराङ्ग में साधु को सचेतन अथवा अचेतन, सूक्ष्म या स्थूल अल्पमात्र भी परिग्रह न रखने का विधान है अन्यथा वह परिग्रही कहलायेगा | २६ इस तरह उभय-परम्पराओं के ग्रन्थों के आलोचन से स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ और महावीर के सिद्धान्तों में आध्यात्मिक या निश्चय दृष्टि से कोई भेद नहीं था; किन्तु शिष्य योग्यता के आधार से उपदेश में भेद है, परन्तु पूर्ण अपरिग्रही ( वीतरागता ) होना दोनों का लक्ष्य है। जितने भी पार्श्वापत्यों अथवा पासत्थों के उल्लेख हैं वे सभी पार्श्व- परम्परा के सम्यक् अनुयायी थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा हम पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों को सही नहीं समझ सकेंगे। सन्दर्भ-सूची १. हयसेणवम्मिलाहिं जादो हि वाणारसीए पासजिणो । तिलोयपण्णत्ति, ४.५४८. माता-पिता के नामादि के सन्दर्भ में श्वेताम्बर - दिगम्बर- परम्परा में कुछ अन्तर मिलता है। देखें- समवायाङ्गसूत्र, २२० - २२१; कल्पसूत्र १४९; आवश्यकनियुक्ति ३८८; उत्तरपुराण ४३; पासणाहचरिउ ( वादिराजकृत) ९.९५.५. २. णेमी मल्ली वीरो कुमारकालम्मि वासुपुज्जो य पासो वि गहिदतवा सेसजिणा रज्जचरमम्मि ।। तिलोयपण्णत्ति, ४.६७०. वीरं अरिट्ठनेम, पास मल्लिं च वासुपुज्जं च । एए मुतूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो । रायकुलेसुऽवि जाया विसुद्धवसेसु खत्तिअकुलेसु इत्यभिसे कुमारवासमि पव्वइआ ॥ । आवश्यकनिर्युक्ति, २२१-२२२. अन्यत्र देखेंपउमचरियं २२; पद्मपुराण, २०.६७; हरिवंश ६०.२१४. ३. णाहोग्गवंसेसु वि वीरपासा । तिलोयपण्णत्ति, ४.५५०. इक्वंस संभूयभूव भाल तिलय भूओ आससेणो नाम नरवई । सिरिपासनाहचरियं । प्र० ३, पृ० १३४; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, ९.३, पृ० ३४. वाराणस्यामभूत् विश्वसेनः काश्यपगोत्रजः । उत्तरपुराण, ७३-७५. ४. ---- मुणिसुव्वओ अ अरिहा अरिट्ठनेमी अ गोयमसगुत्ता। सेसा तित्थयरा खलु कासवगुत्ता मुणेयव्वा । आवश्यकनिर्युक्ति, ३८१. तिलोयपण्णत्ति (चतुर्थ महाधिकार ) ४.५५०, ५४८; भगवती आराधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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