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डॉ० सागरमल जैन द्वारा गुणस्थान - सिद्धान्त के विकास क्रम की गवेषणा 06 १५
गुणस्थानों का उल्लेख
हुआ है |
समवायाङ्ग के पश्चात् श्वेताम्बर - परम्परा में गुणस्थानों के १४ नामों का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में प्राप्त होता है; ३ किन्तु यहाँ पर इनकी गणना १४ भूतग्रामों का वर्णन करते समय गुणस्थान शब्द का उल्लेख किये बिना ही की गयी है; किन्तु डॉ० सागरमल जैन ने इन्हें आवश्यकनिर्युक्ति में प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में 'अधुनामुनैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार' कहकर इन गाथाओं को उद्धृत किया है। नियुक्तियों के गाथाक्रम में भी इन गाथाओं की गणना नहीं की जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि नियुक्ति में ये गाथाएँ संग्रहणीसूत्र से प्रक्षिप्त की गयी हैं। प्राचीन प्रकीर्णकों में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है।
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श्वेताम्बर - प - परम्परा में इन १४ अवस्थाओं के लिये गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आवश्यकचूर्णि (७वीं शती) में मिलता है। जिनदासगणि ने इसका तीन पृष्ठों में विवरण दिया है। तत्त्वार्थभाव्य पर सिद्धसेनगणि की वृत्ति एवं हरिभद्रसूरि की तत्त्वार्थसूत्र की टीका में भी इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है| दिगम्बर-परम्परा में कसायपाहुड को छोड़कर षड्खण्डागम, ७ मूलाचार, ' भगवती आराधना और कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार जैसे अध्यात्मप्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि, १० राजवार्तिक, ११ श्लोकवार्तिक १२ आदि टीकाओं में गुणस्थान - सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। षट्खण्डागम के प्रारम्भिक अंश को छोड़कर सभी उपर्युक्त ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है। षट्खण्डागम में प्रारम्भ में इन्हें जीवसमास कहा गया है।
उपर्युक्त मन्तव्यों का विश्लेषण करते हुए डॉ० जैन ने गुणस्थान - सिद्धान्त के बीजों की चर्चा करते हुए तत्त्वार्थसूत्र, कसायपाहुड, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, आचाराङ्गनिर्युक्ति आदि पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया है। डॉ० जैन के द्वारा प्रदर्शित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं
१.
तत्त्वार्थ सूत्र (द्वितीय तृतीय शती ई०) जैनधर्म की प्रमुख मान्यताओं का प्रतिपादक ग्रन्थ है; किन्तु उसमें गुणस्थान - सिद्धान्त का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। यही नहीं तत्त्वार्थभाष्य में भी इस सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इससे फलित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य का निर्माण होने तक गुणस्थान- सिद्धान्त की अवधारणा अस्तित्व में नहीं आयी थी।
डॉ० जैन ने गुणस्थान-सिद्धान्त के बीजों की चर्चा करते हुए उन्हें तत्त्वार्थसूत्र में भी स्वीकार किया है। वे कहते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र में कर्म-निर्जरा के प्रसंग में सम्यग्दृष्टि
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