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सिद्ध
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पद्धडी छन्द-निरइच्छक मन वेदी महान, प्रज्वलित अग्नि है शुक्लध्यान।
निर्भेद अर्घ दे मुनि महान, तुम ही पूजत अहंत जान ॥२०॥
___ॐ ह्री अहं प्रज्वलितशुक्लध्यानाग्निजिनाय नमः अध्यं । दोहा--आदि अन्त वजित महा, शुद्ध द्रव्य की जात ।
स्वयं सिद्ध परमात्मा, प्रणम शुद्ध निपात ॥२१॥
ॐ ह्री शुद्धनिपाताय नम अध्यं । लोकालोक अनन्तवे, भाग बसो तुम आन । ये तुमसो अति भिन्न है, शुद्ध गर्भ यह जान ॥२२॥ _ॐ ह्री शुद्धगर्भाय नम अध्यं । लोकशिखर शुभ थान है, तथा निजातम वास । शुद्ध वास परमात्मा, नमों सुगुरण की रास ॥२३॥ "ॐ ह्री शुद्धवासाय नम अध्यं । अति विशुद्ध निज धर्म मे, वसत नशत सब खेद । परम वास नमि सिद्धको, वासी वास अभेद ॥२४॥
ॐ ह्री विशुद्धपरमवासाय नमः मध्य ।
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